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Description
अहल्या
मैंने यह कविता कुछ विशिष्ट बुद्धिजीवियों के लिए नहीं लिखी। उन गिने-चुने लोगों का मेरे जीवन में कोई स्थान नहीं और न ही यह कविता जन के नाम पर हाँकी जाती उस भीड़ के लिए है, जो आज की राजनीति के बदलते पैंतरों में बिल्कुल अमूर्त हो गयी है। हम किसे कहते हैं जन ? क्या उसे ही, जो खिलौना बनकर रह गया है, इन खुशामदी अफ़लातूनी राजनीतिक कठमुल्लों के हाथ ? ये सारी अमूर्तताएँ प्रेरित कर सकती हैं किसी जनोत्तेजना को, लेकिन मेरा इसमें विश्वास नहीं।
यह कविता जन्मी किसी ख़ास घटना की वजह से। यह काफी दिनों से मेरे जेहन में थी। पहले मुझे भय भी लगा कि यह क्या है ठोस पथरीला, जो एक बोझ की तरह दिल पर वज़न डाले जा रहा है ? मैंने इसे भूलने की कोशिश की। कुछ महीनों बाद, शायद साल-भर बाद मैंने सोचा इसे शब्दों में उतारूँ। इस पर कुछ लिखू। क्या नाटक ? कहानी ? नहीं, यह घटना कविता बनकर उभरी।
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2020 |
Pulisher |
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