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अमृत गंगा
दो शब्द
अमृत आयु को बढ़ा जरूर देता है लेकिन मृत्यु के भय को समाप्त नहीं कर पाता। देवताओं को भी अपमान और पराजय रूपी मृत्यु समान कष्ट का भय सदैव बना रहता है। पुराणों में इंद्रादि से संबंधित कथाओं को पढ़ने से इसकी पुष्टि होती है।
परीक्षित की कथा जिन्होंने पढ़ी-सुनी होगी, वे भलीभांति जानते हैं कि परीक्षित ने स्वर्गलोक में प्राप्त होने वाले अमृत का पान नहीं किया था, फिर भी वह अमर हो गया। उसमें से मृत्यु का भय सदा-सदा के लिए चला गया। वह परीक्षित, जो मृत्यु से बुरी तरह भयभीत था, कालसर्प तक्षक के समक्ष अपने दाहिने पैर का अंगूठा बढ़ाकर कहता है कि ‘काट लो मुझे अब, तुम्हारे दंश के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली मृत्यु का अब मुझे बिलकुल भय नहीं है।’
श्रीमद्भागवत के माहात्म्य में कहा गया है कि देवता अमृतकलश लेकर महर्षि व्यास के पास आए। उन्होंने महर्षि से कहा कि वे अमृतकलश ले लें और उन्हें भक्ति रस प्रधान उत्कृष्टतम भागवत कथा का पान कराएं। महर्षि ने मना कर दिया। देवताओं ने अमृत के बदले जो कथा सुनने की इच्छा प्रकट की, इससे संकेत मिलता है कि अध्यात्म का पावन रस अमृत से भी ज्यादा मूल्यवान है।
रामचरित मानस के सुंदरकांड में लंकिनी का श्री हनुमान जी के प्रति कहा गया यह वचन अतिशयोक्ति नहीं है, जीवन का परम यथार्थ है। उससे सत्संग की अलौकिक महिमा का पता चलता है। लंकिनी ने कहा-
तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिअ तुला इक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सत्संग।।
ऐसा ही प्रसंग सुकरात के जीवन से जुड़ा हुआ है। कहते हैं जब सुकरात को विष दिया गया तो अपने पास मिलने आए शिष्यवर्ग से वे जीवन से संबंधित विभिन्न प्रश्नों की चर्चा में संलग्न हो गए। शिष्य जानते थे कि अब इस महान विचारक के दर्शन न हो पाएंगे, इसलिए जो पूछा जा सकता है पूछ लिया जाए। कारावास का अंगरक्षक यह सब देख रहा था। उसने सुकरात से निवेदन किया कि वे मौन रहें, बोलें नहीं, नहीं तो विष का असर कम हो जाएगा और उन्हें फिर से विष देना पड़ेगा, जिससे असहनीय पीड़ा होगी। सुकरात ने मुस्कराकर कहा, कोई बात नहीं, तुम अपना काम करो और मुझे अपना काम करने दो। तुम जिस साधारण-सी लगने वाली बेकार की बातचीत समझ रहे हो, वह जीवन से सभी दुखों को खींचकर बाहर फेंकने वाली परमन औषधि है। यही वह अमृत है जो मनुष्य को दीर्घायु ही नहीं बनाता उसे अमरता की अनुभूति भी करा देता है-उसके बाद वह मनुष्य कभी नहीं मरता है। उसके लिए मृत्यु शब्द निरर्थक हो जाता है.
म. मं. जूनापीठाधीश्वर श्री स्वामी अवधेशानंद जी महाराज द्वारा दिए गए उपदेश अमृत तुल्य हैं। जब वे अनवरत धारा की तरह उनके मुखारविंद से प्रवाहित होते हैं तो लगता है मां पतित पावनी भागीरथी की पावन-स्वच्छ धारा में हम स्नान कर रहे हैं। यह स्नान भय तप्त हृदयों के संतापों की ऊष्मा को हर कर परम शांति देने वाला है।
मैंने महाराजश्री द्वारा विभिन्न अवसरों पर दिए प्रवचनों को सरल भाषा में, संक्षिप्त रूप में आप श्रद्धालु-जिज्ञासु पाठकों के लिए प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। मुझे पूरा विश्वास है कि इस प्रवचन संग्रह को पढ़ने के बाद जहां आपकी कई शंकाओं का सहज समाधान होगा, वहीं यह आपके बुद्धि पटल पर जीवन के यथार्थ की एक स्पष्ट झलक भी देगा।
आपको अपने जीवन में अभ्युदय और निःश्रेयस, दोनों की ही प्राप्ति हो, यही मेरी हार्दिक शुभकामनाएं हैं।
गंगा प्रसाद शर्मा
तुमसे भूल हुई है। तुम गलत जगह आ गए हो। मृत्यु के बारे में मैं कुछ भी नहीं जानता, इसलिए मैं नहीं बता पाऊंगा कि वह क्या है। उसके बारे में पूछे गए सभी प्रश्न अनुत्तरित रहेंगे मेरे पास। इसके लिए जाओ उसके पास जिसने मृत्यु का अनुभव किया हो, जो मरा हो। मैंने कभी जन्म नहीं लिया, इसलिए कभी मरा भी नहीं। मैं अजन्मा हूं ! मैं अमर हूं, अविनाशी हूं ! मैं तुम्हें इन्हीं की जानकारी दे सकता हूं। तुम भी अमर हो, अजन्मा हो। मृत्यु कभी तुम्हारा स्पर्श नहीं कर सकती।
वेदांत तीर्थ
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Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Pages | |
Publishing Year | 2015 |
Pulisher | |
Language | Hindi |
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