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Description
अठारह उपन्यास
दो दशक से भी अधिक समय गुजर जाने के बावजूद आज अठारह उपन्यास की प्रासंगिकता बनी हुई है तो इसके कुछ खास कारण हैं। इसमें एक प्रतिष्ठित कथा-लेखक की प्रतिक्रियाएँ भर नहीं हैं, अपने समय की कतिपय महत्वपूर्ण कृतियों को परखने की विशिष्ट समीक्षा दृष्टि भी मौजूद है। एक सर्जक की रचना दृष्टि से लैस समीक्षा इस अर्थ में अलग होती है कि वह रचना और उसकी प्रक्रिया से जुड़े तमाम पहलुओं पर भी पूरी संलग्नता से विचार करती है। इस रूप में राजेन्द्र यादव, सुमित्रानन्दन पंत, अज्ञेय और मुक्तिबोध के क्रम में एक जरूरी समीक्षा लेकर आते हैं।
अठारह उपन्यास के बहाने दरअसल यहां राजेन्द्र यादव इसकी नई समीक्षा दृष्टि लेकर उपस्थित हुए हैं। उनकी यह समीक्षा दृष्टि, उस समय की कथा-समीक्षा के सिर्फ तत्कालीन या फौरी सरोकारों और मूल्यांकन कर डालने की सीमा में बँधे होने और व्यक्तिगत राय या पसंद बनकर रह जाने के विरोध में ही नहीं, उनके सर्टिफिकेट बन जाने और इतिहास दृष्टि से अछूते रह जाने के कारण भी प्रारंभ हुई थी। जाहिर है ऐसे में रचनाकार, समीक्षक राजेन्द्र यादव ने रचना की जरूरत के मुताबिक नए औजारों की तलाश करते हुए कथा-आलोचना में एक नई शुरूआत की थी। रचना में प्रवेश के लिए राजेन्द्र यादव ने तो कई-कई युक्तियों का इस्तेमाल किया है, पत्र-शैली की सीधी-सरल शैली में भी वे रचना के भेद खोलने में सफल रहे हैं। समीक्षा से रचना प्रक्रिया तक के इस क्रम में राजेन्द्र यादव स्वयं को भी इस तरह शामिल कर लेते हैं जैसे अपने रचनाकार को भी वे एक खास दूरी से देख रहे हों।
Additional information
Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Pages | |
Publishing Year | 2008 |
Pulisher | |
Language | Hindi |
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