Bhairvi Chakra

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Bhairvi Chakra

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Author: Gurudutt

Availability: 9 in stock

Pages: 224

Year: 2016

Binding: Paperback

ISBN: 9788193308981

Language: Hindi

Publisher: Hindi Sahitya Sadan

Description

भैरवी चक्र

भूमिका

‘जीवात्मा कर्म करने में स्वतन्त्र है, परन्तु किये हुए कर्म का फल मिलना भी अवश्यम्भावी है। यह ईश्वरीय नियम है। जो राज्य नागरिकों के निजी जीवन को नियम में बाँधने का यत्न करते हैं, वे राज्य नहीं कहलाते। राज्य तो परमात्मा का स्वरूप होता है। जीवन को नियम में बाँधने वाले राज्य दारोगा कहे जा सकते हैं, वे परमात्मा के प्रतिनिधि नहीं हो सकते।’

इस उपन्यास का मुख्य आधार यही है। व्यक्तिगत जीवन में कर्म और उसके फल की प्राप्ति तथा सामाजिक जीवन में व्यक्ति का कर्तव्य और उसकी परिणति तथा राज्य का उसमें अपना भाग।  भारतवर्ष में, जो कभी आर्यावर्त्त कहलाता था और जिसकी दुन्दुभि विश्व में गूँजती थी, उसमें वैदिक काल से आरम्भ कर इसके अन्तिम स्वर्ण काल तक अनेक काल आते गए। वे सब परिवर्तन के प्रतीक थे। समाज और समाज के घटक मनुष्य, के जीवन में परिवर्तन प्रकृति का नियम है और यह अवश्यम्भावी है। स्थिर जीवन अवगति का कारण बन जाता है। तब प्रकृति ही उसे अवगति की ओर धकेलने के लिए बाध्य हो जाती है।

भारत के स्वर्णकाल के उपरान्त यह परिवर्तन ऐसी तीव्र गति से होने लगा कि प्रकृति भी उसको रोक नहीं पाई और वह अधोगति की ओर अग्रसर होने लगा। मानव प्राणी उससे त्रस्त होकर छटपटाने लगा था। यह कलिकाल था। भारत के सभी प्रदेशों पर महाभारत युद्ध का दुष्परिणाम अभी तक चला आ रहा था। युवा क्षत्रियों का व्यापक अभाव हो गया था। अराजकता व्याप्त थी।  उपन्यासकार की मान्यता है कि उस अराजकता में ब्राह्मण वर्ग अपनी आजीविका न चला सकने के कारण पठन-पाठन, अध्ययन-अध्यापन का कार्य छोड़कर विभिन्न प्रकार के व्यवसायों में प्रवृत्त हो गया था। उसी प्रक्रिया में उसने मन्दिर बनवाए, उनमें विभिन्न देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ स्थापित कीं। कालान्तर में उन मन्दिरों और मूर्तियों के भी अनेक रूप बन गए पूजा प्रकार और पद्धति में व्यवापकता के नाम पर संकीर्णता समा गई, परिणाम-स्वरूप समाज में विकृति व्याप गई। तब एक युग ऐसा भी आया जो मद्य, मांस और मुद्रा-मैथुन का युग कहलाया।

इस परिवर्तन की प्रक्रिया में आज से लगभग 2500 वर्ष पूर्व बुद्ध का जन्म हुआ। कहा जाता है कि बुद्ध ने सामाजिक विकृति से बचने का उपाय खोजने का यत्न किया। तब एक नए सम्प्रदाय का प्रचलन प्रारम्भ हुआ। कालान्तर में कदाचित् वह भी विकृत होने लगा और कुछ सौ वर्षों के उपरान्त उन दोनों विकृत परम्पराओं में परस्पर संघर्ष होने लगे। वे संघर्ष व्यक्ति और समाज तक ही सीमित न रहकर राज्यों में फैल गए। दोनों प्रकार की विचारधाराएँ स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने का यत्न करने लगीं। देवानाम्प्रिय अशोक के राज्यकाल में बौद्ध सम्प्रदाय भारत पर छा जाने के लिए प्राणपण की बाजी लगाने लगा था। बुद्ध का तथाकथित शान्ति अहिंसा सद्भावना का सन्देश किसी गहन में समा गया था। राज्य दारोगा का कार्य करने लगा था। यह लगभग कलि संवत् 1660 के काल की घटना है। पाटलिपुत्र के सिंहासन पर अशोक विराजमान था। बौद्य धर्म की स्थापना के नाम पर वह भारतवर्ष के विभिन्न राज्यों में एक प्रकार से सेंध लगा रहा था। कश्मीर में उस समय महाराज जलौक का राज्य था। जलौक स्वयं शैव था किन्तु उसके राज्य में सभी नागरिकों को सम्प्रदाय स्वन्त्रता प्राप्त थी। उसका ही यह परिणाम था कि उसके राज्य में जहाँ एक ओर शैव मत अपनी दिशा में मन्थर गति से चल रहा था वहाँ उसका एक अन्य सम्प्रदाय भैरव के नाम पर भैरवी चक्र में चक्रायित हो रहा था। वैष्णवों के लिए भी उस राज्य में उतना ही स्थान था। महाराज स्वयं शैव था।  अपनी महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए, कश्मीर से कन्याकुमारी तथा अटक से कटक तक के राज्य के लिए महाराज अशोक ने अपना धर्मचक्र चलाना आरम्भ किया तो सर्वप्रथम उसकी दृष्टि कश्मीर की उर्वरा भूमि की ओर गई और उसको बौद्ध सम्पद्राय में सम्मिलित करने के लिए बौद्ध भिक्षुओं को वहाँ भेजा। मार्तण्ड का सूर्य मन्दिर और वहाँ का विशाल पुस्तकालय उस घुन के पहले शिकार बने। संयोगवश महाराज जलौक को इसका ज्ञान हुआ तो उन्होंने उसकी पुनर्प्रतिष्ठा की। किन्तु अपने राज्य में फैलने वाले बौद्धमत को रोकने के लिए उनको बहुत प्रयत्न करना पड़ा।

इस तथ्य से भारतवासी भलीभाँति परिचित हैं कि सर्वथा शान्तिप्रिय अहिंसक मित्रता का व्यवहार करने वाला, जीवदया का प्रणेता होने पर भी भारतवासियों ने बौद्ध सम्प्रदाय को सहर्ष स्वीकार नहीं किया। क्यों ? यह एक ऐसा प्रश्न है जो आज तक भी अनुत्तरित ही है। विगत 2500 वर्षों में संसार में अनेक परिवर्तन हुए हैं। साम्राज्य ढहे, साम्राज्य बने। प्राचीनता का लोप होता गया, नवीनता उसका स्थान लेती गई। शान्ति और युद्ध का संघर्ष चलता रहा। किन्तु संसार ने बौद्ध मत को स्वीकार नहीं किया। न केवल इतना, अपितु बौद्ध सम्प्रदाय की उद्गम भूमि भारत में तो यह सर्वथा उखड़ ही गया है। विदेशों के बौद्ध यात्री भले भी बौद्ध स्थलों की यात्रा के लिए इस देश में आते हों, किन्तु इस देश के यात्रियों तथा पर्यटकों को उनमें ऐसी कोई रुचि नहीं दिखाई देती। आज जब भारतीयों में पर्यटन प्रवृत्ति पनपने लगी है तो कोई- कोई इन स्थलों पर पर्यटनों की दृष्टि से भले ही जाने की इच्छा करता हो, किन्तु उन्हें अपने पूर्वजों की थाली समझकर, उनके प्रति श्रद्धा-भाव रखते हुए जाने वालो की संख्या नगण्य ही है।

प्रस्तुत उपन्यास में जहाँ इस प्रश्न का समाधान खोजने का यत्न किया गया है वहाँ विदेशों, में तथा अब भारत में भी प्रचलित नाइट क्लबों के समकक्ष उस काल के भैरवी चक्रों आदि की तुलना कर कथानक को रोचक ज्ञानवर्धक बनाने के साथ-साथ इन चक्रों से मुक्ति का मार्ग भी उपन्यासकार ने अपनी चिरपरिचित शैली में सुझाया है।

Additional information

Authors

Binding

Paperback

ISBN

Language

Hindi

Pages

Publishing Year

2016

Pulisher

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