Bhartiya Itihas Ki Bhayankar Bhulen

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Bhartiya Itihas Ki Bhayankar Bhulen

Bhartiya Itihas Ki Bhayankar Bhulen

200.00 199.00

In stock

200.00 199.00

Author: Purushottam Nagesh Oak

Availability: 4 in stock

Pages: 304

Year: 2016

Binding: Paperback

ISBN: 9788188388875

Language: Hindi

Publisher: Hindi Sahitya Sadan

Description

भारतीय इतिहास की भयंकर भूलें

आमुख

भारत पर विगत एक हजार वर्ष से अधिक समय तक विदेशियों के निरन्तर शासन ने भारतीय इतिहास-ग्रन्थों में अति पवित्र विचारों के रूप में अनेकानेक भयंकर धारणाओं को समाविष्ट कर दिया है। अनेक शताब्दियों तक सरकारी मान्यता तथा संरक्षण में पुष्ट होते रहने के कारण, समय व्यतीत होने के साथ-साथ, इन भ्रम-जनित धारणाओं को आधिकारिकता की मोहर लग चुकी है।

यदि इतिहास से हमारा अर्थ किसी देश के तथ्यात्मक एवं तिथिक्रमागत सही-सही भूतकालिक वर्णन से हो, तो हमें वर्तमान समय में प्रचलित भारतीय इतिहास को काल्पनिक “अरेबियन नाइट्स’ की श्रेणी में रखना होगा। | ऐसे इतिहास का तिरस्कार और पुनर्लेखन होना ही चाहिये। इस पुस्तक में मैंने भारतीय इतिहास-परिशोध की कुछ भयंकर भूलों की ओर इंगित किया है। जो भूले यहाँ सूची में आ गयी हैं, केवल वे ही अन्तिम रूप में भूलें नहीं हैं। भारतीय और विश्व-इतिहास पर पुनः दृष्टि डालने एवं प्राचीन मान्यताओं का प्रभाव अपने ऊपर न होने देने वाले विद्वानों के लिए अन्वेषण का कितना विशाल क्षेत्र उनकी बाट जोह रहा है, केवल यह दिखलाने के लिए ये तो कुछ उदाहरण मात्र हैं।

मेरे, इससे पूर्व खोजपूर्ण प्रकाशन ‘ताजमहल राजपूती महल था’ ने भारतीय इतिहास के चकाचौंध करने वाले और दूरगामी कुविचार का पहले ही भण्डा-फोड़ कर दिया है। | संक्रामक विष की भाँति भारतीय इतिहास परिशोध की भयंकर भूलों ने अन्य क्षेत्रों में विष-प्रसार किया है। उदाहरण के लिए, वास्तुकला और सिविल इंजीनियरी के छात्रों को बताया जाता है कि वे विश्वास करें कि

भारत तथा पश्चिमी एशिया-स्थित मध्यकालीन स्मारक जिहादी वास्तुकला। की सृष्टि हैं, यद्यपि आगामी पृष्ठों में स्पष्ट प्रदर्शित किया गया है कि तथ्य रूप में भारतीय जिहादी वास्तुकला का सिद्धान्त केवल एक भ्रम मात्र है। समस्त मध्यकालीन स्मारक मुस्लिम-पूर्वकाल के राजपूती स्मारक हैं जिनका रचना-श्रेय असत्य में मुस्लिम शासकों को दे दिया गया है। इसी प्रकार; पश्चिमी एशिया-स्थित स्मारकों के रूपांकनुकार और निर्माता भी भारतीय वास्तुकला विशारद और शिल्पकार थे, क्योंकि इन लोगों को आक्रमणकारी लोग तलवार का भय दिखाकर भारतीय सीमाओं से दूर अपनी भूमि पर बलात् ले गये थे। | इस तथाकथित भारतीय जिहादी वास्तुकला के सिद्धान्त के अनेक दुर्बल पक्षों में सभी मध्यकालीन स्मारकों में चरमसीमा तक हिन्दू लक्षणों का विद्यमान होना है। इसको नियुक्त किये गये हिन्दू कलाकारों की अभिरुचि का परिणाम कहकर स्पष्टीकरण दिया जाता है। इस तर्क में अनेक वृटियाँ हैं। सर्वप्रथम, उग्र मुस्लिम वर्णनों में उनके स्मारकों के बनाने का श्रेय हिन्दू कारीगरों को भी नहीं दिया गया है। उदाहरण के लिए, ताजमहल के मामले में वे इसका रूपांकन-श्रेय किसी विचित्र ईसा अफ़न्दी को देते हैं। यदि वे किसी रूपांकन का श्रेय हिन्दू को दें भी, तो भी मध्यकालीन नृशंसता एवं धर्मान्धता के उन दिनों में कोई भी मुस्लिम इस बात का सहन नहीं कर सकता था कि हिन्दू कलाकार किसी भी मस्जिद या मकबरे में काफिरों के लक्षणों को समाविष्ट कर दे। इस प्रकार यह तर्क भी निरर्थक हो जाता है।

अन्य हास्योत्पादक कथन यह है कि मुख्य वास्तु-कलाकार रूपांकन का स्थूल रूप रेखांकित कर दिया करता था और बीच की आवश्यकताएँ शेष कारीगरों द्वारा उनकी अपनी-अपनी इच्छाओं, अभिरुचियों के अनुसार पूर्ण किये जाने के लिए छोड़ दिया करता था। थोड़ा-सा ही विचार करने पर इन नर्क की निरर्थकता स्पष्ट हो जाती है। जब तक कि सम्पूर्ण सुविचारित रूपांकन प्रारम्भ में ही प्रस्तुत न कर दिया जाए, तबतक जिस सामग्री की तथा जिस-जिस मात्रा की आवश्यकता हो, उसके लिए आदेश दिया ही नहीं जा नकता, वह कार्य असम्भव ही हो जाएगा।

यदि उतनी अपनी इच्छानुरूप रूपांकन करने की अनुमति सभी कारीगरों को दे दी जाती, तो वे सभी एक-दूसरे के विरुद्ध कार्य करेंगे और किसी भी परिनिरीक्षक के द्वारा उनका नियन्त्रण करना कठिन हो जाएगा, क्योंकि वे तो मुस्ताते रहते, निठले रहना चाहते, झिझकते फिरते और कार्य को इस आधार पर रोके रहते कि हमें अपने-अपने कार्य को समय व अवसर मिलता ही नहीं। यह तर्क, कि ‘मुस्लिम’ स्मारकों पर हिन्दू नमूने इसलिए सुशोभित हैं कि कारीगरों को पूर्ण स्वतन्त्रता दे रखी थी, इस प्रकार सुस्पष्टतः बकवाद सिद्ध होती है।

पुरानी दिल्ली की स्थापना-सम्बन्धी भयंकर घोषणाएँ भी ऐसे ही बेहदगियों के विशिष्ट उदाहरण हैं जो प्रचलित अपभ्रष्ट भारतीय इतिहास के अंश बन चुके हैं।

हमें बताया जाता है कि पुरानी दिल्ली की स्थापना १५वीं शताब्दी में बादशाह शाहजहाँ द्वारा हुई थी। यदि यह सत्य बात होती, तो गुणवाचक ‘पुरानी’ संज्ञा न्याय्य कैसे है? इस प्रकार तो यह भारत में ब्रिटिश-शासन से पूर्व नवीनतम दिल्ली ही सिद्ध होती है। इसीलिए, यह तो कालगणना की दृष्टि से लन्दन और न्यूयार्क की श्रेणी में आती है।

तैमूरलंग, जिसने मन् १३६८ ई० के क्रिसमस दिनों में दिल्ली पर आक्रमण किया था, स्पष्ट रूप में उल्लेख करता है कि उसने अपने पापकर्म (अर्थात् कत्ले आम) पुरानी दिल्ली में ही किये थे। वह यह भी लिखता है। कि काफ़िर लोग अर्थात हिन्दू लोग उसकी सैनिक टुकड़ियों पर प्रत्याक्रमण के लिए जामा मस्जिद में एकत्र हो गये। यह सिद्ध करता है कि पुरानी दिल्ली तथ्य रूप में प्राचीन अतिविशान महानगरी दिल्ली का प्राचीनतम भाग है।

तैमूरलंग की साक्षी यह भी सिद्ध करती है कि पुरानी दिल्ली का प्रमुख मन्दिर तैमूरलंग के आक्रमण काल में ही मस्जिद में बदल गया था। यदि ऐसा नहीं हुआ तो हिन्दू लोग उस महाभवन में कभी एकत्र ही नहीं हुए होते। यह तथ्य कि वे लोग वहां स्वेच्छा से, अधिकारपूर्वक एकत्र हुए, सिद्ध करता है कि जामा मस्जिद नाम से पुकारा जाने वाला भवन जिसका निर्माण श्रेय गलती से शाहजहाँ को दिया जाता है, एक हिन्दू मन्दिर ही था जिस समय तैमूरलंग के सैनिक लोग दिल्ली में तहलका मचा रहे थे।

दिल्ली में एक पुराना क़िला अर्थात् प्राचीन दुर्ग नामक स्मारक है। यह मुस्लिम-पूर्व काल का तथा उससे भी पूर्व महाभारत-कालीन विश्वास किया जाता है। अतः यदि पुराना क़िला प्राचीनतम दुर्ग का द्योतक है, तो पुरानी दिल्ली लगभग आधुनिक नगरी किस प्रकार हुई। प्रचलित ऐतिहासिक पुस्तकों में समाविष्ट और उनको भ्रष्ट करने वाली ऐसी ही असंख्य युक्तिहीन बातें हैं जिन पर पुनर्विचार करने की अत्यन्त आवश्यकता है।

तथ्यों को तोड़-मरोड़कर और असंगतियों के अतिरिक्त भारतीय। इतिहास को बुरी तरह से विकलांग कर दिया है। इसके महत्वपूर्ण अध्यायों में से अनेक अध्याय पूर्ण रूप में लुप्त हो गये हैं। हमारी अपनी स्मृति में ब्रिटिश साम्राज्य की ही भांति भारतीय सामाज्य भी पूर्व में जापान, दक्षिण में बाली, पश्चिम में कम-से-कम अरेबिया और उत्तर में बाल्टिक सागर तक, विश्व में दूर-दूर तक फैला हुआ था। इस विशाल साम्राज्य-प्रभुत्व के चिह्न इस पुस्तक के कुछ अन्तिम अध्यायों में दिए गये हैं।

आशा है कि प्रस्तुत प्रकाशन भारतीय इतिहास परिशोध में प्रविष्ट कुछ भयंकर त्रुटियों को सम्मुख लाने में सहायक सिद्ध होगा और अन्वेषण के लिए मार्ग-दर्शन कर सकेगा।

पुरुषोत्तम नागेश ओक

 

अनुक्रम

       आमुख

       ऐतिहासिक अन्वेषण की प्रेरणा

       भारतीय स्मारकों का निर्माण-श्रेय विदेशी मुस्लिमों को दिया गया

       अपकृष्ट अकबर को उत्कृष्ट मानते हैं

       मध्यकालीन तिथिवृत्तों में अनावश्यक विश्वास

       स्थापत्य का भारतीय-जिहादी सिद्धान्त भ्रम-मात्र है

       मुग़ल चित्रकला की भ्रान्ति

       मध्यकालीन मुस्लिम-दरबारों में संगीतोन्नति की भ्रान्ति

       मुग़ल उद्यान-कला की भ्रान्ति

       विदेशियों की शासनकालावधि में स्वर्ण युगों की भ्रान्ति

       सिकन्दर की पराजय जो वीर पोरस पर उसकी महान् विजय कहलाती है

       आदि-शंकराचार्य जी का काल १२६७ वर्ष कम अनुमानित

       भगवान् बुद्ध के काल में १३०० वर्षों की भूल

       भगवान् श्री राम और श्रीकृष्ण के युगों की प्राचीनता कम अनुमानित

       तथाकथित ‘आर्य जाति’–संज्ञा भारी भूल करने वाले पश्चिमी इतिहासकारों की कल्पना सृष्टि है

       वेदों की प्राचीनता अत्यन्त कम आँकी गयी है

       ‘अल्लाह’ मूलरूप में हिन्दू-देवता और ‘काबा’ हिन्दू मन्दिर था

       हम भूल गये कि भारतीय क्षत्रियों का शासन बाली से बाल्टिक समुद्र पर्यन्त तथा कोरिया से काबा तक था

       संस्कृत का विश्व-भाषा-रूप विस्मृत

       पैगम्बर मोहम्मद का हिन्दू-मूल भुला दिया गया

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Authors

Binding

Paperback

ISBN

Language

Hindi

Pages

Publishing Year

2016

Pulisher

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