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Description
भविष्य का स्त्री विमर्श
ज़ाहिर सी बात है नारी विमर्श का तअल्लुक नारों से नहीं है। संसार में जब से स्त्री के जीवन और संघर्ष पर विचार आरम्भ हुआ, तब से नारी विमर्श का आरम्भ हुआ। यह विषय गहरी सामाजिकता से जुड़ा हुआ है इसीलिए समाज के पुरुष तत्त्व को इससे बाहर नहीं धकेला जा सकता। दोनों के बीच समानता हो, यही मानव-विकास की सही पहचान है।
दोनों की समस्याएँ, संघर्ष और स्वप्न एक से होते हैं, दोनों समाज की विसंगतियाँ व्यक्त करने का प्रयत्न करते हैं। हाँ अभिव्यक्ति का तेवर हर रचनाकार का अपना होता है। स्त्री लेखक अपनी भावनाएँ, ऊर्जा और अग्रगामिता व्यक्त करने के लिए जैसे विषय-प्रसंग उठाती हैं, हो सकता है पुरुष लेखक वैसे न उठायें। लिखने का तरीका अलग हो सकता है किन्तु मन्तव्य और गन्तव्य तो एक ही है। लेखन का रास्ता बड़ा लम्बा और श्रमसाध्य है। इसमें नारी-शक्ति का कृत्रिम प्रदर्शन, साहित्य की विश्वसनीयता कम कर बैठेगा खासकर वर्तमान समय में जब स्त्री के प्रति हिंसा पहले से बहुत अधिक बढ़ी है। केवल नारी-विजय की बातें करना अपने को हास्यास्पद बनाना होगा। जीवन की रणभूमि में स्त्री और पुरुष दोनों अपने कुल वेग और आवेग से लगे हैं; कभी वे विजयी होते हैं, कभी हारते हैं। यही बात साहित्य-सृजन पर लागू होती है।
रचना-कर्म में ‘आत्म’ और ‘पर’ कभी भिन्न तो कभी अभिन्न स्थिति में होते हैं। लेखन का सूत्रपात उन सवालों के जवाब ढूँढ़ने से होता है जो अपनी स्थिति को लेकर पैदा होते हैं। पर स्थितियाँ एकांगी कहाँ होती हैं। जन्म से मृत्यु तक समाज हमसे नाभि-नाल सा चिपका रहता है। स्त्री के साथ तो सामान्य से कुछ अधिक।
Additional information
Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2017 |
Pulisher |
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