- Description
- Additional information
- Reviews (0)
Description
दासता के नये रूप
भूमिका
आज से सहस्रों वर्ष पूर्व जब स्मृतिकार महाराज मनु ने यह लिखा था कि श्रुति में अयुक्तिसंगत बात नहीं हो सकती, तो उसने मानव की दासता की श्रृंखलाओं पर घोर आघात किया था। यही कारण है कि भारतीय आचार-व्यवहार अथवा मान्यताओं में युक्ति विशेष निर्णायक आधार रही हैं।
स्मृतिकार के ऐसा विधान करने पर भी सत्ताधीश लोग मनुष्य को दासता की श्रृंखलाओं में बाँधने का यत्न करते रहे हैं। राजनीतिक सत्ता अथवा आर्थिक व सामाजिक प्रभुत्व प्राप्त करके लोग अन्य मनुष्यों अपनी सत्ता अथवा प्रभाव के अधीन रखने के लिए अनेकानेक प्रकारों का प्रयोग करते हैं। ये दासता उत्पन्न करने के उपाय हैं। समय के साथ इसके रूप बदलते रहे हैं। फिर भी दासता तो दासता ही है। रूप बदलने से न तो दासता की तीव्रता कम होती है और न ही उसके दुष्परिणामों से बचा जा सकता है।
आम के पेड़ का अंकुर, जमने के समय भी आम का पेड़ ही होता है, वह नारंगी अथवा नीबू का अंकुर नहीं हो सकता। इसी प्रकार दासता प्रारम्भिक रूप में भी दासता ही रहती है, वह स्वतंन्त्रता नहीं कही जा सकती। दासता का अंकुर विचारों में उत्पन्न होता है। विचार से दासता, आचरण में भी दासता ही उत्पन्न करेगी, अन्य कुछ नहीं।
आज संसार में विचार-स्वातन्त्र्य का लोप हो रहा है। जन-साधारण की बात यदि छोड़ भी दी जाए तो तथाकथित पढ़े-लिखे लोग भी विचार-स्वातन्त्र्य अवांच्छित मानने लगे हैं। वे विचारों की दासता और नियन्त्रण में मतभेद नहीं समझ पाते।
राजनीति में दलबन्दी भी दासता का ही एक रूप है। ऐसा माना जाता है कि राजनीति दल बनाने के बिना नहीं चल सकती। दल-निर्माण के समय तो आधार-भूत सिद्धान्तों की मान्यता ही निहित होती है, परन्तु समय समय पर, जब प्रत्येक विषय में दल के सदस्यों पर ‘ह्विप’ (आदेश) चलाये जाते हैं तो यह नियन्त्रण अधिनायकवाद में बदल जाता है और दल दासों का एक बाड़ा बन जाता है।
शासन की संसदीय प्रणाली में दलबन्दी विशेष अंग माना जाता है और साधारण बातों में भी दल के सदस्यों को ‘ह्विप’ के अनुसार मतदान करना होता है। यों तो उसको नियन्त्रण का नाम दिया गया है, वास्तव में यह अधिनायकवाद का ही एक रूप है।
भारतीय संसद में कांग्रेस का प्रबल बहुमत होते हुए भी निरन्तर ‘ह्विप’ की आवश्यकता बनी रहती है। वे विषय भी, जो दल बनाते समय अथवा निर्वाचनों के समय किसी के ध्यान में नहीं होते, जब विचार के लिए उपस्थिति होते हैं, तो दल के नियन्त्रण के आधीन सबको एक ही मत देना होता है। इसको दासता नहीं कहें तो और क्या कह सकते हैं ?
जब 1953 में मध्यप्रदेश के कुछ मन्त्रीगणों के लाभ के कार्यों में भाग लेने का विषय उठा तो इस पर ससंद में कांग्रेस का ‘ह्विप’ जारी हुआ और जब उत्तर प्रदेश के एक संसद-सदस्य ने, कांग्रेस के नेता के आदेश के विरुद्ध अपनी आत्मा की पुकार के अधीन मत दिया तो उसको दल से बाहर करने की धमकी दी गई और उस बेचारे से क्षमायाचना कराई गई।
जो लोग संसदीय कांग्रेस पार्टी की मीटिंगों में कांग्रेस नेता की फटकारें सुनते रहते हैं, वे मध्यकालीन राजाओं-महाराजाओं के आदेशों के पालन करने वाले मानसिक दासों के चित्र का एक नवीन संस्करण तैयार करते प्रतीत होते हैं।
दासता यह रूप केवल संसदीय अथवा विधान सभा के दलों तक ही सीमित नहीं रहा। आज कांग्रेस के चार आना सदस्यों पर भी नियन्त्रण का चक्र चलाया जा रहा है। उन पर भी स्वतन्त्र विचार रखने पर अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाती है। कांग्रेस का मान रखने के लिए कांग्रेस के प्रत्येक सदस्य को अपनी वाणी और कार्यों पर काबू रखने का आदेश है। परिणाम यह हो रहा है कि विचारशील चरित्रवान् तथा योग्य व्यक्तियों के लिए राजनीतिक दलों में स्थान कम होता जाता है और गुण्डे, चरित्रहीन स्वार्थी तथा मूर्खों के लिए इन दलों में स्थान बढ़ता जाता है। यह तो ऐसे ही है, जैसे चाटुकार राजाओं-महाराजाओं के पास खुशामदी और स्वार्थी लोगों का जमघट लग जाता था। अन्तर केवल यह हुआ है कि जहाँ पिछले काल में अधिनायकवाद व्यक्तिगत होता था, वहाँ आज यह पार्टी के नेताओं का बन गया है।
पार्टी के नेताओं के प्रभाव और उनकी सत्ता का सिक्का जन-साधारण में बनाए रखने के लिए जो उपाय प्रयोग में लाए जाते हैं, वे वही हैं, जो बीतेयुग में शासकों की सत्ता बनाए रखने के लिए प्रयोग में लाए जाते थे।
बहुत दूर जाने की आवश्यकता नहीं। आज 1954 से चालीस-पचास वर्ष पूर्व, जो कुछ अंग्रेज शासकों के प्रभाव को स्थिर रखने के लिए किया जाता था, वही आज कांग्रेस शासकों का शासन स्थिर करने के लिए किया जा रहा है। लार्ड कर्जन तथा उस समय के ‘प्रिंस ऑफ वेल्स’ के भ्रमण के समय, जिस प्रकार स्कूलों के विद्यार्थियों को उनके स्वागत के लिए सड़कों के किनारे खड़ा करके उनके हाथों में कागज की ‘यूनियन जैक’ की झण्डियाँ पकड़ाकर हिप हिप हुर्रे के नारे लगवाए जाते थे, वही आज देश के दो चार व्यक्तियों के लिए किया जा रहा है। केवल उसके रूप में अन्तर है।
अपने देश के किसी एक व्यक्ति के लिए, उसकी विचारधारा को समझने की शक्ति न रखने वाले कोटि-कोटि विद्यार्थियों के मुख से, उसके लिए जय-जयकार बुलवाने का प्रयास तो किसी सीमा तक क्षम्य भी माना जा सकता है, यद्यपि यह भी दास्ता का एक रूप ही है। परन्तु उन विदेशियों को, जिनके न तो विचार हमसे मिलते हैं और न ही उनके काम हमें पसन्द हैं, यहाँ बुलाकर भारत के बालकों के मन में केवल संस्कार डालकर उनकी मान-प्रतिष्ठा बैठाना तो घोर दासता का चिह्न है। यह किसी प्रकार भी क्षम्य नहीं हो सकता।
आज राजनीतिक और आर्थिक मान्यताएँ वैसे ही जनता के मन में डाली जा रही हैं, जैसे किसी काल में सरलचित्त बालकों के मन में धर्मगुरु और भगवान की मान्यताएँ डाली जाती थीं। भगवान् के अस्तित्व में सन्देह करने वाले पर तो भारत में कभी प्रतिबन्ध नहीं था, परन्तु राजनीतिक तथा आर्थिक धारणाओं पर सन्देह करने वालों के लिए तो आज जेल और फाँसी तक का दण्ड नियत है। इस कारण राजनीतिक तथा आर्थिक विचारों की दासता मजहबी दासता से कहीं अधिक पतन की बात मानी जानी चाहिए।
इस सबका परिणाम यह हो रहा है कि जनता तो दास की दास ही है। केवल शासक बदल गये हैं। किसी काल के राजा महाराजाओं के स्थान में, किसी काल के धनी-मानी जमींदारों के स्थान पर, अथवा किसी काल का वायसरायों, कमिश्नरों और डिप्टी-कमिश्नरों के स्थान पर आज राजनीतिक नेता आसीन हो गए हैं। जनता तो वैसी की वैसी ही दासता में जकड़ी पड़ी है।
जब कोई व्यक्ति अपनी बुद्धि का प्रयोग न करके किसी अन्य की बात को केवल एक कारण मानता है कि वह धनी-मानी है या किसी प्रकार से बड़ी पदवी पर पहुँच गया है तो वह दास ही कहायेगा। यह अवस्था तब अनिचिन्तनीय हो जाती है। जब जन-साधारण इस दासता में आनन्द अनुभव करने लगता है। आज जन-साधारण महात्मा गांधी, पण्डित जवाहरलाल तथा स्टालिन अथवा कार्ल मार्क्स, लेनिन और अन्य नेताओं को इस कारण माननीय मानता है क्योंकि वे नेता हैं अथवा रहे हैं। भले ही उनकी बातें अथवा सिद्धान्त उनकी समझ से दूर हों और परीक्षा करने पर अमान्य सिद्ध हों।
इस पुस्तक में एक-दो स्थानों पर महात्मा गांधी के वक्तव्य उद्धृत किए गए हैं। वे ‘दिल्ली डायरी’ नाम की पुस्तक से हैं। नीचे फुटनोट में पृष्ठ संख्या दी है। ‘दिल्ली डायरी’ में सितम्बर 12, 1947 से जनवरी 30, 1948 तक के बिड़ला हाउस में महात्मा गांधी द्वारा प्रार्थना सभा में दिए गए उपदेश संग्रहीत किए गए हैं।
ये हैं दासता के नए रूप, जिनकी एक झलक मात्र ही इस पुस्तक में दिखाने का यत्न किया जा सका है। यह उपन्यास है और इसमें वर्णित पात्र तथा स्थान सब काल्पनिक हैं, वे किसी विशेष व्यक्ति तथा स्थान के अर्थवाचक नहीं। शेष पढ़ने और समझने से सम्बन्ध रखते हुए पाठकों के विचार और निर्णय करने की बात है।
Additional information
Authors | |
---|---|
Binding | Hardbound |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2001 |
Pulisher |
Reviews
There are no reviews yet.