Jahan Favvare Lahoo Rote Hain
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दो शब्द
इतने साल गुज़र जाने के बाद भी मेरी पहचान ईरान पर लिखी मेरी रिपोर्ताज़ों से बनी हुई है। इसका अन्दाज़ा उन जगहों पर जाकर होता है जहाँ लोग मेरी साहित्यिक कृतियों से क़तई वाक़िफ़ नहीं हैं मगर मेरा नाम सुनते ही एकाएक पूछ बैठते हैं ‘वही नासिरा शर्मा, ईरान वाली ?’ फिर वे इण्डियन एक्सप्रेस, हिन्दुस्तान टाइम्स, असरी अदब, क़ौमी आवाज़, सारिका, पुनश्च, नवभारत, दैनिक हिन्दुस्तान जहाँ भी मुझे पढ़ा हो उसका ज़िक्र करते हुए फ़ौरन कह उठते हैं कि आप से मिलने और आपको देखने की बड़ी इच्छा थी जो आज पूरी हुई। फिर किसी लेख या रिपोर्ताज़
के माध्यम से बातचीत का सिलसिला शुरू हो जाता जिसमें ईरान की वर्तमान स्थिति पर ढेरों प्रश्न होते। एक ग़लतफ़हमी जो अक्सर लोगों को मेरे बारे में है जिसमें डाक्टर रामविलास शर्मा सरीखे विद्वान भी शामिल हैं कि मैं ईरानी हूँ और बी.वी.सी. लन्दन वाले मार्कदुली की तरह भारत प्रेम एवं पेशे के चलते हिन्दुस्तान में रह गई हूँ। उनकी बातें सुनकर हँसती भी हूँ और ताज्जुब भी करती हूँ कि क्या वास्तव में राहुल सांकृत्यायन को लोग भूल गए हैं जिन्होंने ईरान पर विस्तार से काम किया या फिर रेणु को जो नेपाल क्रान्ति को देखकर बौद्धिक स्तर पर उद्देलित हो उठे थे ?
इन रिपोर्ताज़ों से दोबारा गुज़रना मेरे लिए बड़ा कष्टदायक अनुभव साबित हुआ। एक तरफ़ यक़ीन करना मुश्किल हो रहा था कि इस सबसे गुज़रने वाली मैं ही थी जो इब्नेबतूता बनी, सर पर कफ़न बाँधे इन इलाक़ों में घूम रही थी। या फिर दूसरी तरफ़ आश्चर्यमिश्रित अविश्वास में डूब-उतर रही थी कि क्या वास्तव में ईरानी क्रान्ति का वह समय इस हद तक अंकुश, आतंक, अत्याचार एवं अमानवीय घटनाओं से भरा हुआ था ? इस दिमागी कैफ़ियत का असर यह हुआ कि जो पुस्तक साल भर के अन्दर आनी थी वह पूरे तीन साल बाद आई क्योंकि प्रूफ़ पढ़ते हुए कोई भी लेख या रिपोर्ताज़ पूरा करने से पहले ही मैं उत्तेजना से भर जाती। बदन में गर्म-गर्म ख़ून दौड़ने लगता, आँखें तन-सी जातीं, नसें चिटखनें सी लगतीं और मैं कई-कई दिन मेज की तरफ जाने का हौसला नहीं बन पाती थी। शहादत, हादसा, युद्ध की जरिये मरने वाले मित्रों की शक्लें आँखों के सामने घूमने लगतीं जो मुझसे सवाल करती कि मैंने ईरान की सियासत पर लिखना क्यों बन्द कर दिया ? मैं कैसे कहती कि मेरी जान की खतरा कितना बढ़ गया था।
Additional information
Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2003 |
Pulisher |
Reviews
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