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Description
जूठन-1
आजादी के पाँच दशक पूरे होने और आधुनिकता के तमाम आयातित अथवा मौलिक रूपों को भीतर तक आत्मसात कर चुकने ने बावजूद आज भी हम कहीं-न-कहीं सवर्ण और अवर्ण के दायरों में बंटे हुए हैं। सिद्धांतो और किताबी बहसों से बाहर, जीवन में हमें आज भी अनेक उदाहरण मिल जाएँगे जिनमे हमारी जाति और वर्णगत असहिष्णुता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है।
‘जूठन’ ऐसे ही उदाहरणो की श्रृंखला है जिन्हें एक दलित व्यक्ति ने अपनी पूरी संवेदनशीलता के साथ खुद भोग है। इस आत्मकथा में लेखक ने स्वाभाविक ही अपने उस ‘आत्म’ की तलाश करने की कोशिश की है जिसे भारत का वर्ण-तंत्र सदियों से कुचलने का प्रयास करता रहा है, कभी परोक्ष रूप में, कभी प्रत्यक्षतः। इसलिए इस पुस्तक की पंक्तियों में पीड़ा भी है, असहायता भी है, आक्रोश और क्रोध भी और अपने आपको आदमी का दर्जा दिए जाने की सहज मानवीय इच्छा भी।
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2020 |
Pulisher |
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