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Description
मुक्तिस्वप्न
मुक्तिस्वप्न प्रसिद्ध स्पानी कथाकार होसे रिसाल के उपन्यास एल.फिलीबुस्तेरिस्मो का हिन्दी अनुवाद है। इसमें स्पेन के विरुद्ध फिलीपीनी मुक्ति संघर्ष और मुक्तिस्वप्न की कथा कही गई है। व्यंग्य-विनोद और वाक्-चातुर्य से भरपूर इस उपन्यास के विविध प्रसंग गहरे में मार करने वाले हैं। फिलीपाइंस में तत्त्कालीन स्पानी शासन और गिरजाघरों की शोषण-वृत्ति की इसमें खुलकर आलोचना है, और वह आलोचना एकांगी नहीं है। औपनिवेशिक स्थितियाँ लोगों के मन में किस तरह की प्रवृत्तियाँ पैदा करती हैं, इसकी एक सूक्ष्म जांच भी इस उपन्यास में है। कुल मिलाकर यह जीवन और उसके नाना रूपों को एक ऐसे फलक पर रखता है, जहाँ हर व्यक्ति इसमें आज भी, अपनी कई देखी-जानी चीजों का प्रतिबिम्ब पा सकता है।
यह अनुवाद
होसे रियास का कथा साहित्य समूचे स्पानी-संसार में समादृत है। और दो कड़ियों वाले उनके उपन्यासों नोलीमे तांजेरे और एल फ़िलिबुस्तेरिस्मो को क्लासिक का दर्जा प्राप्त हो चुका है। होसे रियास के दादा-परदादा स्पेन से आकर फ़िलीपींस में बस गये थे, जहाँ एक लंबे समय तक स्पेन का शासन रहा था। ठीक उसी प्रकार जैसे भारत में अँगेजों का शासन था, पर जन्माना फ़िलीपीनी होने के कारण होसे रियास अपने सोच कर्म और लेखन में फ़िलीपींस को अपना देश मानते थे। और स्पेन के विरुद्ध फ़िलीपीनी मुक्तिसंघर्ष और ‘मुक्तिस्वप्न’ की ही कथा है उनके दोनों उपन्यास नोजीले तांजेरे और एल फ़िलिबुस्तेरिस्मो। दोनों जुड़वाँ हैं। पर बिलकुल स्वतंत्र भी, और एक की कथा जाने बिना भी दूसरे का आनंद उठाया जा सकता है। यह अनुवाद एल फ़िलिबुस्तेरिस्मो के अंग्रेजी अनुवाद The Reign of greed के सतरहवे संस्कार (1950 ई.) से किया गया है।
अनुवादक हैं, चार्ल्स ई, डर्बीशायर यह पहली बार 1912 ईं में प्रकाशित हुआ था। ऐसा लगता है कि अंग्रेजी अनुवाद के मूल के वाक्य-विन्यास और शब्द समूहों के क्रम का दूर तक पालन किया जाता है। होसे रिसाल की शैली में, कई प्रसंगों, दृश्यों-चित्रों टिप्टणियों-संवाद को एक साथ पिरो देने का कमाल हासिल किया जाता है। व्यंग्य-विनोद और विट (वाक् चातुर्य) का इस्तेमाल भी उनके यहाँ भरपूर है। और ये सभी चीज़ें परिष्कृत भी हैं, और गहरे में मार करने वाली है, स्पानी प्रशासन और चर्च की शोषण-वृति की खुली आलोचना है, पर यह आलोचना इकहरी या एंकाकी नहीं हैं, उसकी एक सूक्ष्म जाँच भी इस उपन्यास में है। कुल मिलाकर तो यह स्वयं जीवन को और उनके बहुविधि रूपों को, मानों एक ऐसे पलक पर रखती है, जहां हर व्यक्ति इनमें आज भी, अपनी कई देखी-जानी हुई चीज़ों का एक प्रतिबिम्ब पा सकता है।
इसकी मानवीय दृष्टि तपी हुई और संवेदित है। उपन्यास का अनुवाद मैंने ज़रूर अंग्रेजी से किया है, पर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्पानी के प्राध्यापक श्री अपराजित चट्टोपाध्याय से मैं समय-समय पर कई सुझाव और जानकारियाँ प्राप्त करता हूँ और अनुवाद के सिलसिले में मिली उनकी हर प्रकार की सहायता के लिए मैं उनका सचमुच बहुत आभारी हूं उन्हीं के विभाग में स्पानी की छात्रा रह चुकी अपनी बेटी वर्षिता से भी मुझे कुछ सुझाव-संशोधन मिलते रहे हैं। श्री सुरेश धींगड़ा ने तो पूरी पांडुलिपि ही स्पानी मूल से मिलाकर देखी और जांची है, और इस सबमें काफ़ी समय लगाया है। अपने इन सभी प्रियजनों को धन्यवाद देना मैं अपना कर्तव्य समझाता हूँ।
1 नवम्बर, 2004
प्रयाग शुक्ल
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2017 |
Pulisher |
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