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पंचामृत
अपनी बात
पंचामृत देते समय देवपूजक अर्थात पुजारी जिस मंत्र का उच्चारण करता है, उसका अर्थ है-अकाल मृत्यु का हरण करने वाले और समस्त रोगों के विनाशक, श्रीविष्णु का चरणोदक पीकर पुनर्जन्म नहीं होता। दूसरे शब्दों में, श्रद्धापूर्वक पंचामृत का पान करने वाला मनुष्य संसार में समस्त ऐश्वर्यों को प्राप्त करता हुआ शरीरपात के बाद जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। यह पंचामृत का माहात्म्य है। गोदुग्ध, गोदधि, गोघृत, शर्करा और मधु के सम्मिश्रण में रोग निवारण गुण विद्यमान होते हैं, यह पुष्टिकारक है, चिकित्सा शास्त्र की मान्यता है यह। लेकिन जब यह देवमूर्ति का स्पर्श करता है तो मुक्ति प्रदाता हो जाता है-यह आध्यात्मिक सत्य है।
यही बात संसार की समस्त वस्तुओं के साथ है। जब संसारी व्यक्ति के मुख से ‘शब्द’ निकलता है तो उससे मेरा-तेरा का विस्तार हो जाता है। इसका प्रतिफल है-दुख, आपका और विपत्ति। परंतु जब यह ‘शब्द’ महापुरुषों के हृदय से करुणासिक्त होकर अभिव्यक्ति पाता है तो प्रवचन हो जाता है- उपदेश हो जाता है। इसी संदर्भ में ‘शब्द’ को ब्रह्म कहा गया है। अधिकारी शिष्य के हृदय रूपी सीप में गुरुमुख से निकले शब्द स्वाति नक्षत्र में आकाश से सीप में गिरी वर्षा की एक साधारण बूंद की तरह प्रतिफलित होते हैं तब वह बूंद शुभ्र और अनमोल मोती बन जाती है। इसी को सदग्रंथों और संत-महापुरुषों ने सत्संग कहा है। जैसे सीप का संग बूंद के नाम-रूप और स्वभाव को मूलत: बदल देता है, वैसा ही परिवर्तन ‘सत्संग’ से होता है।
‘श्रीरामचरित मानस’ के सुंदरकाण्ड में लंकिनी द्वारा कहा गया यह सत्य-यदि तराजू के एक पलड़े पर स्वर्ग एवं अपवर्ग के समस्त सुखों को रख दिया जाए और दूसरे पलड़े पर एक पल सत्संग से प्राप्त सुख को तो सत्संग से प्राप्त सुख का पलड़ा भारी होगा-सत्संग के माहात्म्य का ही बखान है। सत्य और असत्य की तुलना नहीं की जा सकती। जिस प्रकार स्वप्नकाल की करोड़ों की संपत्ति जाग्रत अवस्था के एक पैसे के सामने अर्थहीन है, उसी प्रकार परमसत्य के मात्र एक क्षण के सुख के समक्ष समस्त सांसारिक सुख व्यर्थ हैं। वे सुख चाहे इस लोक के हों या अन्य स्वर्गादि लोकों के, किसी भी तरह से उनकी तुलना परमसत्य के सुख से नहीं की जा सकती।
बदलते समय के साथ-साथ ‘सत्संग’ के बाहरी ढांचे में परिवर्तन हुए हैं। ‘केबल संस्कृति’ के कारण आप अपने मन के अनुसार जिसका भी चाहें, उसका प्रवचन घर बैठे सुन सकते हैं। ‘स्प्रिच्युअल चैनल्स’ पर सबके कार्यक्रम सुनिश्चित हैं। यह बात सही है कि गुरु या प्रशिक्षक के समक्ष बैठकर सुनने का लाभ इससे नहीं मिलता लेकिन श्रव्य और दृश्य को सुनना-देखना पुस्तक का स्वाध्याय करने से ज्यादा सुरुचिकर है। इसे भी साधक श्रोता को स्वाध्याय का ही एक अंश मानना चाहिए।
मैं मूलत: कोई लेखिका नहीं हूँ। महापुरुषों के वचनों को सुनना मुझे अच्छा लगता है। महापुरुषों का कथन है कि श्रवण के बाद मनन भी करो। मैंने अनुभव किया कि सुनते समय जो अच्छा लगता है और हृदय को स्पर्श करता है वह कुछ पल बीतते ही तेज हवाओं द्वारा उड़ाए गए बादलों की तरह बिखरकर न जाने कहां लुप्त हो जाता है। इसलिए मैंने अपनी डायरी पर उन विचारों को लिखना शुरू किया जिनमें मुझे जीवन के समझने और उसे निखारने के सूत्र मिले। विचार महापुरुषों के हैं लेकिन इन्हें समझाने के लिए मैंने अपनी भाषा दी है। इसलिए वाक्यों में दोष आ जाना स्वाभाविक है। यह भी संभव है कि अनेक स्थानों पर मैं कथ्य में सही शब्द भी न दे पाई होऊं। लेकिन यदि उसे दो-चार बार पढ़ा जाए तो वह अनगढ़ वाक्य उस ओर अवश्य संकेत करेगा जिसे मैंने शब्दों में बाँधने की कोशिश की है।
इस संकलन को जब मैंने अपने सद्गुरुदेव स्वामी अवधेशानंद गिरि जी के कर कमलों में अवलोकनार्थ रखा तो वे मुस्कराए। मौन सराहना थी शायद यह उनकी। मेरे अनुरोध पर पूज्य स्वामी जी ने शीर्षक के बारे में विचार करके बताने का आश्वासन दिया। बाद में उन्होंने इस संकलन का नाम ‘पंचामृत’ रखा। एक प्रभु प्रेमी ने अनुभव से इस नाम का खुलासा करते हुए बताया कि चार महापुरुषों के दिव्य वचनों को पांचवी बार मैंने संकलित किया है, इसलिए स्वामी जी ने पुस्तक का यह नाम दिया।
अपना संकलन जब मैंने श्री विनय गुप्ता को भेजा तो उन्होंने प्रकाशन की सहमित दे दी। यह भी महापुरुषों की कृपा का ही परिणाम है।
यह संकलन प्रकाशित हो, इसके पीछे मेरा एक ही स्वार्थ है। मैं चाहती हूँ कि जिस प्रकार ये छोटे-छोटे वाक्य मेरे जीवन में एक आदर्श संत महापुरुष की तरह मुझे भटकावों से मुक्त करते हैं, उसी तरह आप भी इनसे प्रेरणा पाएँ और अपने सन्मार्ग को प्रशस्त करें। यदि ऐसा होता है तो मैं स्वयं को सौभाग्यशाली मानूंगी।
इस पुस्तक के प्रकाशन में श्री गंगाप्रसाद शर्मा का बड़ा योगदान रहा है। उन्होंने न सिर्फ मुझे यह पुस्तक लिखने के लिए उत्साहित किया अपितु इसे संवारने, तराशने में भी मेरी बहुत सहायता की।
अंत में, मैं उन महापुरुषों के श्रीचरणों से भी क्षमा याचना करती हूँ जिनके अनमोल वचनों को मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार ऐसा कलेवर देने का प्रयास किया। ऐसा प्रयास भी उनकी कृपा का ही प्रतिफल है। यह प्रयास उन्हीं के श्रीचरणों में समर्पित है।
सदगुरु चरण रज
– संतोष गर्ग
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Pages | |
Publishing Year | 2016 |
Pulisher | |
Language | Hindi |
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