Samrachnavad Uttar Samrachnavad Evam Prachya Kavyashastra

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Samrachnavad Uttar Samrachnavad Evam Prachya Kavyashastra

Samrachnavad Uttar Samrachnavad Evam Prachya Kavyashastra

500.00 499.00

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500.00 499.00

Author: Gopi Chand Narang

Availability: 1 in stock

Pages: 456

Year: 2021

Binding: Hardbound

ISBN: 9788126007981

Language: Hindi

Publisher: Sahitya Academy

Description

संचरनावाद उत्तर-संरचनावाद एवं प्राच्य काव्यशास्त्र

इस समय प्रश्न यह है कि इधर संकेत-विज्ञान (संरचनावाद, उत्तर-संरचनावाद, विरचनावाद और उत्तर-आधुनिकता सहित) ने अर्थ के दर्शन का जो नया मार्ग खोला है तथा सैद्धांतिकी में जो मूलगामी परिवर्तन हुए हैं और भाषा, जीवन, स्वत्व, मानस, बोध, आत्मपरकता, साथ ही साहित्य, वैचारिकी एवं संस्कृति के बारे में जिस तरह सोचने के आधार बदल गए हैं, क्या उसको ‘औपनिवेशिक’ या यूरो-केंद्रित कहकर उससे दामन छुड़ाया जा सकता है ? क्या मानवीय चिंतन की इस ताज़ा उपलब्धि से मुँह मोड़ा जा सकता है ? वैज्ञानिक आविष्कार चाहे कहीं के हों उनका लाभ समस्त मानवता के लिए होता है। क्या नए चिंतन की कतिपय अंतर्दृष्टियों का दर्जा वैज्ञानिक आविष्कारो का नहीं ? अगर ऐसा है तो क्या उनकी अग्रगामिता एवं मूलगामी अर्थवत्ता से आँखें बंद की जा सकती है ? स्वीकार-अस्वीकार एवं संशोधन की प्रक्रिया आवयविक प्रक्रिया हैं। ज़रूरत चिंतन-मनन का मार्ग खुला रखने तथा समझने-समझाने की है। प्रस्तुत पुस्तक इसी दिशा में एक क़दम है।

प्राच्य काव्यशास्त्र की शताब्दियों से चली आ रही परंपरा का नए सिरे से मूल्यांकन भी इसीलिए किया गया है कि दो परस्पर भिन्‍न परंपराओं की मिलती-जुलती अंतर्दृष्टियों को रू-ब-रू किया जा सके, जिससे द्विपक्षीय संवाद स्थापित हो और समझने-समझाने में सहूलित हो। लेकिन उसका उद्देश्य न कोई नया आंदोलन चलाना है, न संहिता निर्धारित करना। नई थ्योरी सिरे से संहिता लागू करने अथवा तंत्र-गठन ही के विरुद्ध है, अपितु हर तरह की संहिताबद्धता का नकार करती है, क्योंकि तमाम संहिताएँ एवं तंत्र अंततः सर्वसत्तात्मकता और निर्धारणवाद की तरफ ले जाते हैं तथा वैचारिक एवं सृजनात्मक आज़ादी पर पहरा बिठाते हैं। नई थ्योरी की सबसे बड़ी उपलब्धि भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के स्वरूप तथा प्रकृति का वह बोध है, जो अर्थ के आरोपण को तोड़ता है तथा अर्थ के पाश्वों को खोल देता है। पाठ कदापि स्वायत्त एवं आत्मनिर्भर नहीं है, क्योंकि अर्थग्रहण की प्रक्रिया अंतहीन है। यह इतिहास की धुरी पर और संस्कृति के भीतर है। दूसरे शब्दों में आलोचना पढ़त का रूपक है और सामाजिक प्रक्रिया का अंग है। इसकी वास्तविक परीक्षा इसी में है कि वह निर्धारित अर्थ और हर प्रकार की सर्वसत्तात्मक अवधारणाओं के विरुद्ध हो और स्वरूप की दृष्टि से वैमुख्यपरक हो, ताकि कोई सत्ता-संस्थान या न्यस्त स्वार्थ पहरा न बिठा सके, और आगामी परिवर्तन तथा विचारणा का मार्ग खुला रहे…

(प्राक्कथन से)

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Hardbound

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Language

Hindi

Publishing Year

2021

Pulisher

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