Vivek Darpan

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Vivek Darpan

Vivek Darpan

80.00 79.00

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Author: Swami Avdheshanand Giri

Availability: 10 in stock

Pages: 160

Year: 2019

Binding: Paperback

ISBN: 9788131015605

Language: Hindi

Publisher: Manoj Publications

Description

विवेक दर्पण

बुद्धि जब सही समय पर सही-गलत का निर्णय करने में सक्षम हो जाए, तो समझना चाहिए कि वह सत्य के मार्ग पर ले जाएगी। महर्षि व्यास प्रणीत वेदांत सूत्रों का पहला सूत्र ही इस ओर संकेत करता है। उसके बाद ब्रह्म की जिज्ञासा करे, ‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा’। इस सूत्र के ‘अथ’ में ‘विवेक’ को इसलिए आवश्यक माना गया है क्योंकि बिना इसके जीवन में वैराग्य घटित ही नहीं होता। वैराग्य कसौटी है विवेक की। विवेक की परिणति है वैराग्य। तत्त्वज्ञान के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए जिज्ञासु को इन दोनों की ही परम आवश्यकता हुआ करती है, बिल्कुल उसी तरह जैसे आकाश की ऊंचाइयों को छूने के लिए किसी पक्षी को दो पंख चाहिए ही-दोनों पंख चाहिए।

वेदांत ग्रंथों में विवेक के संदर्भ में हंस को परम आदर्श स्वीकार किया गया है। कहते हैं, हंस ‘दूध का दूध, पानी का पानी’ कर देता है, अत्यंत सहजता से। इसी तरह विवेकशील एक समान मिले पदार्थों को बड़ी आसानी से अलग-अलग कर लेता है। और यदि व्यवहार के लिए उनका मिले रहना आवश्यक हो तो भी वह उन्हें एक-दूसरे से बिल्कुल अलग-अलग देखता है।

विवेकवान को ही शास्त्र ‘जागा हुआ’ कहते हैं। ‘जागर्ति को वा ?’ जागा हुआ कौन है ? इसका उत्तर देते हुए आद्यशंकर कहते हैं, ‘सदसद् विवेकी’, अर्थात् जो सत्य-असत्य का विवेक कर सकता है, वही जागा हुआ है। नहीं तो- ‘मोह निशा सब सोवन हारा।’

जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि जी महाराज के प्रवचनों का उद्देश्य ही है जनचेतना को जाग्रत करना। उसका रूप धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक कोई भी हो सकता है। आदि शंकराचार्य ने त्रिसत्ता (सत्तात्रय) की चर्चा करते हुए व्यावहारिक और पारमार्थिक सत्ता के समन्वय पर बल दिया है। उनका मानना है कि जब तक स्वप्न टूटता नहीं, जागरण नहीं घटित होता, तब तक सपना सत्य-सा नहीं, बल्कि सच्चा लगता है।

यही स्थिति व्यवहार की भी है। आध्यात्मिक अनुभूति हुए बिना व्यवहार भी सत्य प्रतीत होता है।

महर्षि अष्टावक्र और जनक का संवाद इसी सत्य की पुष्टि करता है। जनक ने रात्रि में आए स्वप्न की चर्चा करते हुए जब अपनी सभा में विद्वानों से यह पूछा कि सत्य क्या है, तो उन्होंने उत्तर दिया था कि दोनों झूठे हैं, क्योंकि स्वप्नकाल में स्वप्न का द्रष्टा जाग्रत नहीं रहता और जागने पर स्वप्न का बाध हो जाता है। सत्य तो वह तत्त्व है, जो प्रत्येक अवस्था में अपने मूलरूप में रहा करता है। यह विश्लेषण ही विवेक है और उसे आत्मसात् करना आत्मज्ञान या तत्त्वज्ञान।

शास्त्रों में सत्संग की महिमा का बारंबार बखान किया गया है। व्यवहार की दृष्टि से संग जहां संस्कारों का वाहक है, वही चित्त में प्रसुप्त पड़े संस्कारों को क्रियाशील भी बनाता है। अजामिल की कथा बताती है कि कैसे संग का प्रभाव पूरे व्यक्तित्व को बदलकर रख देता है, एक साधु पुरुष कैसे अनर्थकारी हो जाता है, संग से जीवन की दिशा ही बदल जाती है।

रहीम ने कहा है कि कुसंग से बचें, क्योंकि:

कहो रहीम कैसे निभै बेर केर को संग

वे डोलत रस आपने तिनके फारत अंग।

यह कुसंग विवेक को हर लेता है। और सत्संग ? सत्संग की फलश्रुति है ’विवेक की प्राप्ति’- बिनु सत्संग विवेक न होई।

इस पुस्तक के महत्वपूर्ण सूत्र आपको जीवन संबंधी प्रश्नों को जानने-समझने के योग्य बनाएंगे, ऐसा मेरा विश्वास है।

पुस्तक से संबंधित आपकी प्रतिक्रिया का हार्दिक स्वागत है।

– गंगा प्रसाद शर्मा

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Binding

Paperback

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Language

Hindi

Pages

Publishing Year

2019

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