Bhasmavrit Chingari
Bhasmavrit Chingari
₹75.00 ₹58.00
₹75.00 ₹58.00
Author: Yashpal
Pages: 134
Year: 2010
Binding: Paperback
ISBN: 9788180314612
Language: Hindi
Publisher: Lokbharti Prakashan
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Description
भस्मावृत चिनगारी
हमारे पूर्वज साहित्य की दृष्टि से वंश उत्पत्ति के स्रोत नारी की शुद्धता सबसे अधिक महत्त्व की वस्तु थी। वह दृष्टिकोण और प्रयोजन नैतिक था, यह हम स्वीकार करते हैं परन्तु आज के लेखक का भी प्रयोजन हो सकता है-वह चाहता है हमारे समाज का आधा भाग नारी समाज भी आज के कठिन संघर्ष में अपने आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक दायित्व को समझे और वह केवल पुरुष के कन्धों पर बोझ ही न बनी रहे।
कला और साहित्य का उद्देश्य सभी अवस्थाओं में मनुष्य की नैतिकता और कर्तव्य की प्रवृत्तियों की चिनगरियों को भावना की फूँक मार कर सुलगाना ही रहता है। अन्तर रहता है, हमारे विश्वास और दृष्टिकोण में। कभी हम समझते हैं इन चिनगारियों में से निकली ज्वाला प्रकाश का मार्ग दिखाएगी, कभी हम समझते है हैं कि यह ज्वाला हमारे समाज की रक्षा करने वाले छप्पर को फूँक कर राख कर देगी।
हिन्दी कहानी की विकास परम्परा में यशपाल अकेले लेखक हैं, जिनमें यथार्थवादी रचनादृष्टि के अनेक रुप विद्यामान हैं। कथा-वस्तु ही नहीं, शिल्प के स्तर पर भी उनका अवदान हिन्दी कहानी में ऐसा है जिसे रेखांकित किया जाना बाकी है। परम्परागत कथा-रुप से लेकर आख्यान के शिल्प तक उनके प्रयोगों का विस्तार है। कथा-वस्तु के क्षेत्र में कल्पना से लेकर वस्तुगत यथार्थ और फिर सामाजिक यथार्थ की सहज भूमि पर उतर कर अन्वेषण और उद्घाटन तक उनका कथा-सृजन फैला हुआ है। इस तरह देखें तो वे हिन्दी कहानी के एक मात्र स्रष्टा हैं उन्होंने प्रसूत, भावात्मक सृजन से शुरू करके कथा वाचन तक की लम्बी कथा-यात्रा इन कहानियों में पूरी की है। आख्यातिक के शिल्प तक पहुँचते-पहुँचते यशपाल कहानी को सामाजिक परिवर्तन का माध्यम मानने लगते है।
1939 से 1979 के बीच प्रकाशित सत्रह कथा-संकलनों में फैला हुआ उनका विशाल कहानी लेखन हिन्दी साहित्य की गौरवपूर्ण उपलब्धि है जिसे अब लोकभारती चार भागों में प्रकाशित कर ऐसे पाठक वर्ग तथा पुस्तकालयों की माँग को पूरा कर रहा है जो एक लम्बे अरसे से यशपाल की कहानियों के ग्रंथावली-रूप की माँग कर रहा था। परिवर्तन के इस युग में हमारे प्रतिष्ठित साहित्यिक और कलाकार सतर्क और चिन्तित हैं। उन्हें भय या, उत्साह और उत्तेजना से मूढ़ नयी पीढ़ी के साहित्यकों और कलाकारों के हाथ में पड़ कर हमारी परम्परागत कला अपनी शुद्धता, प्रतिभा और प्रयोजन न खो बैठे। नयी पीढ़ी के कलाकार कला के सभी रूपों, कविता, कहानी और चित्रकला का उपयोग, अपनी सूझ के अनुसार वर्तमान समस्याओं की अभिव्यक्ति और उनके हल के लिए निर्ममता और निरंकुशता से कर रहे हैं। प्रतिष्ठित कलाकारों की आशंका एक सीमा तक युक्तिसंगत है। उत्तेजना मूढ़ता और निरंकुशता से सभी वस्तुओं और साधनों का अनियमित प्रयोग भोंड़ा और बेढंगा हो सकता है। प्रश्न यही है कि नयी पीढ़ी के कलाकार मूढ़ और निरंकुश है या नहीं ?
कला मनुष्य के सभी भावों का परिमार्जित रूप है। ऐसा रूप जो कलाकार-व्यक्ति समाज के विचार चिंतन और उपयोग के लिए समाज के सम्मुख प्रस्तुत करता है। स्थान और समय के भेद से जैसे मनुष्य के विचारों को प्रकट करने का मुख्य साधन भाषा पृथक- पृथक होती है वैसे ही स्थान और समय के अन्तर के भावों अथवा कला के प्रकट करने के साधनों या बाहरी रूप में अन्तर आ जाना आवश्यक है। स्थान और समय का दूसरा नाम है परिस्थितियाँ। परिस्थितियों से न केवल भाव को प्रकट करने वाले साधनों के रूप में अन्तर आ जाता है बल्कि भाव भी दूसरे प्रकार के हो जा सकते हैं। मनुष्य के भाव या भावना की परिभाषा की जाय तो हम उसे संक्षेप में मनुष्य की महत्त्वाकांक्षा कह सकते हैं। एक छोटी मछली की महत्त्वाकांक्षा हाथी बनने की होगी- मगरमच्छ बनने की कल्पना शायद चींटी न कर सके।
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Pages | |
Publishing Year | 2010 |
Pulisher | |
Language | Hindi |
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