Chandni Raat Ka Dukhant

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Chandni Raat Ka Dukhant

Chandni Raat Ka Dukhant

150.00 149.00

In stock

150.00 149.00

Author: Kartar Singh Duggal

Availability: 4 in stock

Pages: 224

Year: 2019

Binding: Paperback

ISBN: 9788172012069

Language: Hindi

Publisher: Sahitya Academy

Description

चाँदनी रात का दुखांत

कोई नहीं कहता था मालिन और मिन्नी माँ-बेटी हैं। जहाँ से गुजरतीं लोग यही समझते कि दो बहनें हैं। मिन्नी बालिश्त-भर ऊँची थी अपनी माँ से। ‘‘अरी मालिन, अटूट यौवन उतरा है तेरी बेटी पर। ‘‘अड़ोसिनों-पड़ोसिनों की उसकी ओर देख-देख कर भूख न मिटती। और लड़की जैसा सच्चा मोती हो। जितनी सुन्दर, उतनी सुशील। मालिन अपनी बेटी के मुँह की ओर देखती और उसे लगता जैसे हूबहू वो खुद हो। अभी तो कल की बात थी, वो स्वयं वैसी की वैसी थी। और वो सोचती, अब भी उसका क्या बिगड़ा था। अब भी, अब भी कोई पहाड़ काटकर उसके लिए नहर निकालने को बेताब था। अब भी, अब भी कोई सात समुन्दर तैर कर उस तक पहुँचने के लिए बेकरार था।

ये कौन उसे आज याद आ रहा था ? मोतियों का व्यापारी !

ये क्यों उसकी पलकें आज भीग-भीग जा रही थीं ? उसकी बेटी अब जवान हो गई थी, अब उसे ये कुछ नहीं शोभा देता था। सारी आयु संभल-संभल कर चली, आज ये कैसे ख़्यालों में वो खोई चली जा रही थी ? नहीं, नहीं। अगले हफ़्ते मिन्नी, अपनी बेटी का उसे कारज रचाना था। नहीं, नहीं, नहीं।

‘‘पास मेरी परम प्यारी, एक पल न बिसारी।’’ कल उसने चिट्ठी लिखी थी। हर बार वो आता, ये उसे वैसे का वैसा लौटा देती; आँखें मींच कर अपना द्वार बन्द कर लेती। लेकिन वो था कि एक पल भी इसे उसने नहीं बिसारा था। मालिन उसकी जान थी। एक क्षण उसे चैन नहीं था इसके बिना। और सारी उम्र काट ली थी किसी की प्रतीक्षा में, फफक-फफक कर, सिसक-सिसक कर, तड़प-तड़प कर। सारी उम्र ! और अब परछाइयाँ ढल रही थीं; चाहे कभी पंछी उड़ जाय।

मालिन सोचती आज रात वह ज़रूर आएगा। शरद पूनम की रात वो ज़रूर इसका द्वार खटखटाता था। वर्षों से खटखटाता आ रहा था। कभी भी तो इसने अपना पट उसके लिए नहीं खोला था।

और फिर मालिन को कई वर्ष पहले शरद पूनम की वो रात याद आने लगी, जब अमराई के तले नाचते, इसकी चुनरी उसकी बाँहों के साथ लिपट गई थी। और सिर से नंगी ये उसके सामने दुहरी हो-हो गई थी। और फिर उसने इसकी चुनरी इसके कन्धों पर ला रखी थी।

हैं ! हू-बहू वैसे ही अपना दुपट्टा आज इसने अपने कन्धे पर रखा हुआ था। और मालिन सिर से पाँव तक लरज़ गई।

सामने गली में मिन्नी आ रही थी। जैसे सरू का पेड़ हो। ऊँची, लम्बी और गोरी। हाथ लगाने से मैली होती। मुँह, सिर लपेटे, आँखें नीचे डाले। मजाल है, किसी ने उसका ऊँचा बोल भी कभी सुना हो। मन्दिर से लौट रही थी। भगवान् के आगे हाथ जोड़-जोड़ कर कि उसके मन की मुराद पूरी हो। भगवान् सबके मन की मुराद पूरी करे ! और मालिन आप ही आप मुसकुराने लगी। जैसे किसी के गुदगुदी हो रही हो। उसके मन की क्या मुराद थी ?

‘‘माँ, लहैजी आज नहीं आये ?’’ मिन्नी माँ से पूछ रही थी।

‘‘तेरे लहैजी आज नहीं आयेंगे। वो तो कहीं कल भी आ जायँ तो लाख शुक्र। कितना सारा कपड़ा लत्ता और कितना सारा अनाज उसे खरीदना है। शादी-ब्याह में चीज़ बच जाय तो अच्छी, कम पड़ गई तो बड़ा झंझट होता है।’’ मालिन बेटी को समझा रही थी। मिन्नी चूल्हे-चौके में व्यस्त होने से पहले धीरे से आई और अपनी मकैश वाली चुनरी माँ के कन्धों पर रख उसका दुपट्टा उतार कर ले गई। कहीं उसकी रेशमी चुनरी मैली न हो जाय।

कितनी महीन मकैश उसने टाँकी थी अपनी चुनरी पर ! धुँधलका हो रहा था। अकेली आँगन में बैठी मालिन कल्पनाओं में खो गई थी। कई चक्कियाँ बड़ा महीन आटा पीसती हैं। मालिन सोचती, वो भी तो एक चक्की की तरह थी जो सारी उम्र अपनी धुरी पर चलती रही। कभी भी तो उसकी चाल नहीं डगमगाई थी ! अपने-आप को उसने मलीदा कर लिया था। रोक-रोक कर, भींच-भींच कर खतम कर दिया था अपने आप को।

पूरे चाँद की चाँदनी अमराई में से छन-छन कर उसके ऊपर पड़ रही थी। ये कैसे विचारों में वो बहती जा रही थी आज ! मालिन को लगता जैसे एक नशा-सा उसको चढ़ रहा हो। पूरे चाँद की चाँदनी हमेशा उस पर एक जादू-सा कर दिया करती थी।

चार दिन और, और फिर इस आँगन में गीत बैठेंगे। मालिन सोच रही थी। और फिर मेंहदी रचाई जायगी। और फिर मिन्नी दुल्हन बनेगी। सिर से लेकर पाँव तक गहनों से लदी हुई। लाल रेशमी जोड़े में कैसी बहू लगेगी मिन्नी ! और फिर कोई घोड़े पर चढ़ कर आयगा और डोले में डाल कर उसे ले जायगा अपने घर; अपनी अटारी में। और उसकी हथेलियाँ चूम-चूम कर उसकी मेंहदी का सारा रंग पी लेगा।

मालिन सोचती, अभी तो कल की बात थी, उसने भी मेंहदी लगाई थी। पर मिन्नी के लहैजी ने तो एक बार भी उसकी हथेलियों को उठा कर अपने होठों से नहीं लगाया था। एक बार भी उसने कभी इसके हाथों को उठा कर अपनी आँखों से नहीं छुआ था। थका-हारा वो काम से लौटता, खाना खाता और खाकर सो जाता। एक बेटे की लालसा, कभी-कभी आधी रात को उसकी आँख खुल जाती। तब, जब मुश्किल से तारे गिन-गिन कर मालिन को नींद आई होती। और फिर हर वर्ष, हर दूसरे वर्ष इनके एक-न-एक बेटी आ जाती। बिन बुलाई लड़कियाँ आप ही आप आतीं, आप-ही-आप जाती रहीं। बस, एक मिन्नी बची थी। इकलौती। बड़ी-बड़ी, काली-काली आँखें। मालिन की आंखें। गोरे-गोरे गालों के नीचे तिल। मालिन का तिल ! गज़-गज़ लम्बे बाल। मालिन के बाल ! मालिन सोचती, जैसे इस जीवन की उसकी सारी भूख ने उसकी बेटी में पुर्नजन्म ले लिया हो, अपनी पूर्ति करने के लिए। मालिन सोचती, उसका हुस्न जैसे फिर साकार हो गया हो गया था अपनी कोख-जायी में, अपना मूल्य चुकवाने के लिए। मालिन को हमेशा महसूस होता जैसे उनके अंग-अंग , पोर-पोर में एक भूख बसी हुई हो। एक प्यास में उसके होंठ बेक़रार हो रहे थे।

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Paperback

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Language

Hindi

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Publishing Year

2019

Pulisher

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