Daraspothi

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Daraspothi

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400.00 340.00

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Author: Akhilesh Tatbhav

Availability: 5 in stock

Pages: 234

Year: 2011

Binding: Hardbound

ISBN: 9788126721375

Language: Hindi

Publisher: Rajkamal Prakashan

Description

दरसपोथी

एक युवा चित्रकार की सुचिंतित दृष्टि जब अपने समकालीन कला-समय पर पड़ती है, तब उससे पैदा होने वाली एक व्यापक कला अवधारणा के तमाम सारे सीमान्त एकबारगी आलोकित हो उठते हैं। वर्तमान चित्रकला परिदृश्य पर अपने अनूठेपन एवं अमूर्त्तन के लिए समादृत रहे चित्रकार अखिलेश के निबंधों की यह सारगर्भित अन्विति अपनी बसाहट, कला-अनुभव, अचूक प्रश्नाकुलता के चलते एक अविस्मर्णीय गद्य पाठ बन पड़ी है। अखिलेश की यह ‘दरास्पोथी’ एक हद तक कबीर का वह ‘रामझरोखा’ बन सकी है, जहाँ बैठकर रंगों की अत्यंत सूक्ष्म व जटिल जवाबदेही का मुजरा वे पूरे संयत भाव से ले पाए हैं। इसी कारण इन निबंधो के सम्बन्ध में यह देखना प्रीतिकर है कि निबंधकार, मूर्धन्य कलाकारों से संवाद, विमर्श एवं मीमांसा के उपक्रम में अपनी भूमिका को एक सहज जिज्ञासु एवं कला अध्येता की बना सका है, जिसके कारण किसी प्रकार की नवधा-भक्ति में तिरोहित होने से यह सलोनी किताब बाख सकी है।

एक अर्थ में यह पुस्तक शास्त्रीय संगीत के उस विलम्बित ख्याल की तरह लगती है, जिसमें उसके गाने वाले कलाकार के लिए भी सदैव एक चुनौती बनी रहती है कि वह कोई नया सुर लगाते वक्त अथवा पुरानी सरगम की बढ़त करते हुए उसी क्षण एक नयी ‘उपज’ को आकार दे रहा होता है। अखिलेश ने अपने इन उन्नीस निबंधों में ठीक इसी विचार को बेहद रचनात्मक ढंग से बरतते हुए ढेरों उपजों का सुर-लोक बना डाला है। यह अकारण नहीं है कि अखिलेश अपने पूर्ववर्ती और समवर्ती कलाकारों पर लिखते हुए उसे ‘अचम्भे का रोना’ कहते हैं। वे, रविंद्रनाथ टैगोर के चित्रकार मानस को पढ़ते हुए एक जगह लिखते हैं : ‘रवीन्द्र की स्याही संकोच से सत्य की तरफ जाती दीखती है। इसमें आत्म-सच का प्रकाश फैला है; इन रेखांकनों में दावा नहीं कवि का कातर भाव है। तो दूसरी ओर जगदीश स्वामीनाथन के लिए उनका कथन काबिलेगौर है : ‘वे लघु चित्रों की बात करते हैं आदिवासी नजरिये से। वे रंगकाश रचते हैं लोक चेतना से। स्वामी का लेखन इतिहास चेतना से भरा हुआ है। स्वामी के चित्र उससे मुक्त हैं।’ यह अखिलेश की कवि-दृष्टि है, जिसमे एक कलाकार या चित्रकार होने की सारी सम्भावना पूरी उदात्तता के साथ उस तरह सूर्याभिमुख है, स्वयं जिस तरह शाश्वत को खोजने वाली एक सहृदय की निगाह सत्य की रश्मियों से चौंधियाती है, बार-बार अचंभित होती है।

इन निबंधो को पढने से इस तथ्य को बल मिलता है कि अखिलेश जहाँ बेहद गैर-पारंपरिक ढंग से अमूर्त्तन के धरातल पर स्वयं के चित्र बनाने की प्रक्रिया में बेहद आधुनिक और लीक से थोडा निर्बन्ध सर्जक का बाना अख्तियार करते हैं, वहीं वे एक निबंधकार एवं कला-आलोचक के रूप में कहीं पारंपरिक सहृदय की तरह दृश्य पर नज़र आते हैं। उनकी कला-आलोचना दरअसल अपने रंगलोक के आदि प्रश्नों से अलग हटकर सांसारिक एन्द्रियता में पूरे लालित्य और प्रांजलता के साथ कुछ अतिरिक्त खोजती, बीनती, बुहारती आगे बढती है। वे इतिहास के सन्दर्भों से, सांस्कृतिक स्थापनाओं के गहर सम्मोहन से, समय और भूगोल की एकतान जुगलबंदी से, स्मृतियों की धूप-छाँही रंगोली से तथा कला के निर्मम सत्य की आत्यन्तिक पड़ताल से अपने निबंधों की भाषा अर्जित करते हैं। यह देखना भी अधिकांश लेखों में इस अर्थ में बेहद प्रासंगिक है कि कई बार आप जैसे ही किसी कलाकार की गहरी मीमांसा में मुब्तिला रहते हैं, अखिलेश हाथ पकड़कर अचानक ही निहायत भौतिक समय में आपको ले जाते हैं और महत्त्वपूर्ण या गैर इरादतन महत्त्वपूर्ण बन रही किसी तिथि या घटना का साक्षी बना डालते हैं। कई दफे वह अपने ढंग से कलाकार की फितरत और उसके द्वारा अत्पन्न उस दृश्यावली को टटोल रहे होते हैं, जहाँ स्वयं वह कलाकार जा नहीं पाया है; तभी एकाएक वह सिलसिला टूटता है और अखिलेश उस व्यक्ति की कला सम्भावना को व्यापक परिप्रेक्ष्य में संदर्भित करते हुए किसी दुसरे महान चित्रकार, लेखक या कलाकार का उद्धरण देकर हमारे आस्वाद में एक नये क़िस्म की मिठास घोल देते हैं।

कहने का आशय इतना है कि अखिलेश स्वयं कौतुक पर विश्वास करते हैं और गाहे-ब-गाहे हमें ऐसी परिस्थिति में डालने में भी संकोच नहीं करते, जिसके अदम्य मोह से निकलकर वापस अपनी दुनिया में आना जल्दी संभव नहीं हो पाता। इन निबंधो के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अखिलेश ने अपने इस कलात्मक विमर्श की पुस्तक में एक ऐसे सामानांतर संसार की पुनर्रचना की है, जो अब तक अपने सबसे शाश्वत एवं उदात्त अर्थों में सिर्फ मिथकीय एवं पौराणिक अवधारणाओं में बसती रही है। मगर इसी क्षण यह भी कहने का मन होता है कि एक चित्रकार की मौलिक विचार सम्पदा ने कलाओं पर विमर्श के बहाने, एक ऐसे मिथकीय संसार का सृजन कर दिया है, जो आज के भौतिकवादी और बाजार आक्रांत समय में उसका एक निहायत दिलचस्प और मननशील प्रतिरूपक बन गया है। हम इस तरह की शब्दावली को पढ़ते हुए अपने लिए उस नयी सभ्यता का थोड़ी देर के लिए वरण भी कर पा रहे हैं, जो सौभाग्य से अभी भी साहित्य और कलाओं के संसार में साँस ले रही है।

क्या यह नहीं लगता कि रवीन्द्रनाथ टैगोर, नारायण श्रीधर बेंद्रे, मकबूल फ़िदा हुसेन, जगदीश स्वामीनाथन, के.जी. सुब्रमण्यम, भूपेन खख्कर, जनगण सिंह श्याम, लोक-समय, संस्थापन-कला-रूप, जेराम पटेल, किशोर उमरेकर, अमृतलाल वेगड़ एवं मनोग्राही कला-मनन के बहाने अखिलेश रंग-शिखर पर दीया बार रहे हैं।

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Hardbound

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Publishing Year

2011

Pulisher

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Hindi

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