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Description
हिन्दी भाषा का विकास
हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों ने खड़ी बोली या आधुनिक हिन्दी में लिखित साहित्य के विकास का इतिहास प्रस्तुत करने में अपेक्षित सावधानी और वैज्ञानिक दृष्टि का परिचय नहीं दिया है। ‘हिन्दी’ पद के अर्थ-निर्धारण और तदनुरूप इतिहास लेखन में भी वे घोर विरोधाभास के शिकार हो गए हैं। यह अजीब सी स्थिति है कि ‘दक्खिनी हिन्दी’ में लिखित साहित्य को, जिसकी भाषा मूलतः खड़ी बोली, बाँगरू, ब्रजभाषा आदि का मिला-जुला रूप है और जिसका नामकरण स्वयं उनके लेखकों ने ही ‘हिन्दी’ या ‘हिन्दव’ֹ किया था, हिन्दी साहित्य के इतिहास में कोई स्थान नहीं दिया जाता है और आधुनिक हिन्दी साहित्य में उसी खड़ी बोली पर आधारित आधुनिक हिन्दी को इतना अधिक महत्त्व प्राप्त हो जाता है कि अवधी, ब्रजभाषा, राजस्थानी, मैथिली आदि में लिखित रचनाओं को कोई जगह नहीं दी जाती है।
इस पुस्तक में दो अलग-अलग अध्यायों में साहित्यिक भाषा के रूप में अवधी एवं ब्रजभाषा के विकास पर विस्तारपूर्वक चर्चा करते हुए हिन्दी से उनके सम्बन्धों को स्पष्ट किया गया है और पूरे ब्योरों के साथ इस निष्कर्ष को प्रस्तुत किया गया है कि साहित्यिक भाषा के रूप में खड़ी बोली का इतिहास उतना ही पुराना है जितना अवधी या ब्रजभाषा का।
इस पुस्तक को कुल बारह अध्यायों में विभक्त कर हिन्दी भाषा के गूढ़ार्थ को परत-दर-परत खोलने का भागीरथ प्रयास किया गया है। ‘अपभ्रंश’ और ‘हिन्दी’ के सम्बन्ध निर्धारण में ‘अवहट्ट’, ‘पुरानी हिन्दी’, ‘प्रारम्भिक हिन्दी’ आदि पदों के अनिश्चित अर्थों में प्रयोग को लेकर हिन्दी के विद्यार्थियों में जो विभ्रम की स्थिति बनी हुई थी उसका निराकरण इस पुस्तक में बड़ी सहजता से प्रस्तुत कर ‘अपभ्रंश’ और ‘हिन्दी’ के सम्बन्ध पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विचार किया गया है। इसी तरह हिन्दी का अर्थ, उसका इतिहास और हिन्दी-उर्दू के सम्बन्ध पर भी पूरी प्रामाणिकता और शोधात्मक दृष्टिकोण से सहज और सुन्दर भाषा में चर्चा की गई है। साथ ही संघ लोक सेवा आयोग के हिन्दी पाठ्यक्रम के भाषाविषयक अंश का विवेचन तथा उसकी असंगतियों का यथासम्भव उल्लेख और निराकरण करने का प्रयास किया गया है।
Additional information
Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Pages | |
Publishing Year | 2022 |
Pulisher | |
Language | Hindi |
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