Path Dansh

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Author: Neerja Madhav

Availability: 4 in stock

Pages: 120

Year: 2024

Binding: Hardbound

ISBN: 9789355184825

Language: Hindi

Publisher: Bhartiya Jnanpith

Description

पथ दंश

लिखना क्यों ?

रचनात्मक शून्यकाल में जब सारे आवेग, संवेग, उद्वेलन, संवेदन साम्यावस्था में आ जाते हैं तो कहीं से एक हठी प्रश्न आकर मेरी लेखनी को अपनी दोनों हथेलियों में जकड़ लेता है और मुझे अपलक निहारते हुए पूछता है—आखिर लिखना क्यों ? यह लेखनी माधव की मुरली तो नहीं, जिसकी टेर सुनते ही विश्वयारी में गलबाँहीं दिये वर्तमान यायावरी प्रवृत्तिरूपी गउएँ झुण्ड की झुण्ड भागतीं, दौड़तीं, रँभातीं आकर मुरली वाले को घेर खड़ी हो जाएँगी। कुछ क्षण मधुर तान पर सिर हिलाती, गले की रुनझुन घण्टियों से ताल मिलाती, पुनः वापस चल पड़ेंगी घर की ओर। पीछे-पीछे उन्हें हाँकते, उनकी पग-धूल से धूसरित कान्हा, आपादमस्तक विजय-रज लपेटे। और यह लेखनी माँ का वह विशाल आँचल भी तो नहीं जिसकी छाँह में लड़खड़ाते गिरते बच्चों को वर्जना और ताड़ना देने के बाद मीठी लोरी सुनाकर सुला दिया जाए और तब उनके घाव पर स्नेह-लेप लगाया जाए। फिर जब लेखनी माँ नहीं, माधव नहीं, तब क्यों मूल्यों की चौखट थामे थथमी सी पुकार लगाने और लौट आने की गुहार कर रही हैं ? और किससे ? क्या उनसे, जो इस चौखट को छोड़कर जा रहे हैं या जा चुके हैं ? अथवा उनसे जो इसकी पहरेदारी कर रहे हैं ?

हृदय का उद्वेलन चैतन्य होता है और उत्तर आता है—सभी से। उनसे भी जो धर्मान्तरण, मतान्तरण द्वारा प्रसार-लोलुप हैं और मूर्ति-स्थापना, पूजा, प्रार्थना, इबादत के नाम पर धर्म को लहूलुहान करने की साधना में तल्लीन हैं, उनसे भी जो चौहत्तर मन जनेऊ तौलवाने के बाद भी अक्षुण्ण धर्म के मद में चूर संयत भाव से राग दरबारी अलापते निष्क्रिय जीवन जीने की चेष्टा कर रहे हैं। धार्मिक सहिष्णुता, उच्च नैतिक मूल्य और संवेदनशीलता ही इस देश की आत्मा रही है जो इसे पाश्चात्य मशीनी संस्कृति और जीवन-दर्शन से आज तक पृथक किये हुए थी। परन्तु कहीं सेंध लगा कर तो कहीं प्रत्यक्ष प्रहार कर भारत की आत्मा को ही तोड़ने का प्रयास जारी है। इतिहास साक्षी है कि इस देश पर अतीत से लेकर आज तक न जाने कितने आक्रमण हुए, लूटपाट की नीयत से बाहरी शक्तियाँ आयीं और कभी हार कभी जीत के बाद वापस गयीं; परन्तु देश अक्षुण्ण रहा, संस्कृति अडिग, रही, मूल्य चुनौती की तरह बर्बर लुटेरों के सम्मुख तने रहे। परन्तु आज धार्मिक सहिष्णुता में सेंध लगी है। सांस्कृतिक विरासत को गा-गाकर तहस-नहस किया जा रहा है, मूल्य माटी के मोल बिक रहे हैं। इसी सरोकार से जूझते हुए इस संग्रह का सृजन चक्र मुख्य रूप से धार्मिक उन्माद, नैतिक पतन और संवेदनहीनता पर प्रहार करता है और उसके विकृत स्वरूप को अपनी महिमा-मण्डित अतीतारसी में दिखाने का कार्य करता है। यह विगत में पलायन नहीं बल्कि अतीत के शाश्वत मूल्यों को वर्तमान के हाथों भविष्य को सौंपने का गुरुतर दायित्व है। और यह दायित्व लेखनी सँभालती है।

महानगरीय रावण गाँवों को घसीटकर अपने साथ ले जा रहा है। सब चुप हैं। एक क्लीव सन्नाटा। परिस्थितियों के साथ समझौता करता सा। परन्तु दुरपदिया (द्रौपदी) को अपनी और सीता की लाज अब स्वयं बचानी है। दुरपदिया, जो विस्थापित हो महानगर में बसने के बाद भी ढल नहीं पाई है और लौट आना चाहती है अपने खेत और खरिहान, चौरा माई के चबूतरा, डीह बाबा के थान पर माथा नवा भौतिकता के पीछे दौड़ती अपनी अगली पीढ़ी के लिए चिन्तातुर, मनौती, मानती, उनके सकुशल लौट आने की आस लिये। दूसरी ओर राम करन अपने घर की लाज को कुदृष्टि की आँच से दूर रखने की जगह उस आँच में अपनी जेबें गर्म करने और विरासत में मिली गरीबी की चादर में मखमली पैबन्द का स्वप्न देख रहा है और दुरपदिया बौखलाई हिरनी की तरह इधर-उधर निरापद मार्ग तलाश रही है। दुरपदिया एक चरित्र ही नहीं, एक समूचा गाँव है। भारत का कोई भी गाँव। पुराना, मिट्टी की सोंधी गन्ध लिये, बैलों के गले की घण्टी की रुन-झुन, रहट पुरवट, लेजुर, धुरई, बड़ेरी से जुड़े सम्बोधनों के स्वर में मुखरित। रामकरन महानगर है संवेदनहीन। एकाकी, अर्थ की अर्थवत्ता में सीमित, यन्त्र-चालित। दोनों एक दूसरे के सम्मुख चुनौती की तरह खड़े हैं, एक दूसरे से असम्पृक्त भी, सम्पृक्त भी। इन दोनों के बीच खड़ी है लेखनी।

बारूद के ढेर पर बैठा दिया गया है भारत की आत्मा को। हल की मूठ छुड़ा राइफलों की बट पकड़ा दी गयी है भोले भाले हाथों में। दो जून की रोटी नहीं, कपड़ा नहीं। पर न जाने किन रास्तों से होकर छप्परों में घुसी जा रही हैं अत्याधुनिक राइफलें और बन्दूकें, जो निगल जा रही हैं रोटियाँ और फाड़ दे रही हैं कपड़े। निर्वस्त्र हो जा रही है घर की लाज और फिर बेघर होती है कोई सीता कोई रीतू। मन बहलाव के लिए ऊँट की पीठ पर बँधता है कोई नन्हा, कोई छोटू। उनकी भयभीत चीखों से गूँजता है ममता का कोना और भींगती आँखें थाम लेती हैं लेखनी का आँचल, किसी कवि की, लेखक की। और तब उत्तर प्रतिध्वनित होता है। लिखना इसीलिए।

पथ चाहे धर्मान्तरण की ओर जाता हो या धार्मिक कट्टरता की ओर, दोनों ही दशाओं में किसी भी राष्ट्र के लिए इसका दंश असहनीय होता है और तभी धर्म अपने वास्तविक जीवन मूल्यों से च्युत होकर विकृत रूप धारण करता है और जब धर्म के ऐसे विकृत स्वरूप को मनुष्य धारण करता है तो निःसन्देह वह भी विकृत हो उठता है, धर्म के सहज और उदात्त भाव से बिल्कुल दूर उसके आडम्बरों कट्टरता और प्रसार लोलुपता के साथ कदम-से-कदम मिलाता स्वार्थ भरी खीसें निपोरता। जरा-सा विरोध होते ही धर्म के मूल तत्त्व को एक किनारे ढकेलता खड़ा हो जाता है, आक्रामकता के साथ मुट्ठियाँ भींचे। धर्म को स्वयं के साथ पतित करता और इस सीमा तक पतित करता कि पशु तक उसकी नादानियों को समझ बैठने का विवेक जुटा लेता है। क्योंकि पशु-जगत का भी धर्म के प्रति सहज दृष्टिकोण है। वे भी अपने सहज धर्म का पालन करते हैं। किसी भी अतिवादी या प्रसार भावना से दूर। घोड़े नहीं चाहते कि हाथी घोड़े हो जाएँ या ऊँट, कुत्ते हो जाएँ। सभी सह-अस्तित्व के साथ अपने-अपने धर्म के अनुसार जीते हैं। फिर मानव में ही इस तरह की लिप्सा क्यों ? क्या उसे लगता है कि वह आदिशक्ति बिना भीड़ द्वारा ज़िन्दाबाद का नारा दिये अपनी दया का द्वार नहीं खोलेगी ? या किसी एक विशेष धर्म को ही उसमें प्रवेश मिलने की गुंजाइश है ? यदि वह सार्वभौम सत्ता इस तरह के पक्षपात और राग-द्वेष से रहित है तो क्या यह स्वतः प्रमाणित नहीं है कि इस तरह का सोच पूर्णतया सांसारिक भ्रम है और कुछेक धर्म-गुरुओं द्वारा रचित कुचक्र है। इन कुचक्रों का पर्दाफाश करने और धर्म की सहजता को स्थापित करने के सरोकार से जूझती हैं कहानियाँ ‘पथ-दंश’, ‘तूफान आनेवाला है’, ‘मिथकवध’ आदि।

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Hardbound

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Language

Hindi

Pages

Publishing Year

2024

Pulisher

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