Sagar Laharen Aur Manushya

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Sagar Laharen Aur Manushya

Sagar Laharen Aur Manushya

500.00 480.00

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500.00 480.00

Author: Uday Shankar Bhatt

Availability: 5 in stock

Pages: 247

Year: 2019

Binding: Hardbound

ISBN: 8170436168

Language: Hindi

Publisher: Atmaram and Sons

Description

सागर लहरें और मनुष्य

उस दिन मंगलवार था, पूनो की रात। आकाश से दूध की धार बरस रही थी। धरती का कोना-कोना हँस रहा था। समुद्र की सतह पर जहाँ तक निगाह जाती, मोतियों का चूरा बिछा था। लहरों की आकाश चूमने वाली ऊँची दीवारों के किनारों पर फेनों की गोट लगी दीख पड़ती थी। अभिमान की तरह लहरें ऊँची-से-ऊँची उठ रही थीं। सारा समुद्र एक महान् खिलाड़ी के उल्लास-उमंग से उत्तरंग हो रहा था।

पहले पहर की उसी रात को बम्बई के पश्चिम तट पर बसा हुआ मछलीमारों का गाँव बरसोवा उनींदा हो रहा था। गदेलों और कथरियों पर लेटी जवान औरतें काम-काज से थककर छाती पर हाथ रखे सपने देखने की तैयारी कर रही थीं। कुछ समुद्र में गए अपने पतियों की याद में टिमटिमाते दियों या पाँच नम्बर के बल्बों पर नज़र गड़ाये कल्पना के चित्र बुन रही थीं। उनकी मैली-कुचैली अँगियों में छिपे भूधरों पर काम का नाग कभी-कभी फनफना उठता। बच्चे सो गए थे। बूढ़े कभी-कभी खाँस उठते थे तो बीड़ी के धुएँ के साथ उनकी मैली साँसें हवा के आँचल को पकड़कर ऊपर-ऊपर उड़ने की चेष्टा करतीं। उस समय बरसोवा में आदमी कम, बच्चों-बूढ़ों की गिनती अधिक थी। जो आदमी थे वे बाहर से आए दूकानदार थे। प्रायः सभी मछली मार समुद्र के भीतर उमंग की तरह तैरने वाली मछलियों को पकड़ने निकल पड़े थे। दुर्गन्ध, पानी, कीचड़ से नहाई गलियों, कच्ची सड़कों पर ऊर्ध्वग्रीव कुत्ते कभी-कभी सातों स्वरों में तान अलाप छेड़ बैठते और अपने समवेतगान से समुद्र-गर्जन का मुकाबिला करते। बाकी सब शान्त था। अँधेरा कोनों में छिपा बैठा था ; उजाला मैदानों में नाच रहा था। धीरे-धीरे और भी सन्नाटा बढ़ा। गाँव के तटों और समुद्र की छाती की धड़कन कम हो रही थी। इसी समय बादलों के टुकड़े पश्चिम के क्षितिज से चोरों की तरह झाँकने लगे। हवा की साँस घुटने लगी। लहरों की हिम्मत टूटी। जो दो-चार समुद्री चिड़ियाँ आसमान में मँडराकर समुद्र की छाती पर उभरती मछलियों का शिकार करने में व्यस्त थीं, उनका अब कहीं नाम-निशान नहीं रह गया था। सन्नाटा और बढ़ा। हवा और कम हुई। लहरों के गीत सोने लगे। इसी समय साहसी डाकुओं की तरह काले लबादों में लिपटे बादल तीरों और लम्बे बाँसों के समान मोटी धार आसमान से गिराने लगे। अब सब ओर इस्पात की तरह ठोस अँधेरा घहराने लगा—निगाहों की सुई के लिए भी असम्भव। सोते-सोते जागकर एक पुराना खुर्रा्ट बूढ़ा उठा तो चिपचिपे पसीने से उसकी देह नहा गई। पसीना पोंछते हुए उसने बीड़ी सुलगाई और बाहर आकर आसमान की ओर ताका, फिर समुद्र की ओर देखा तो जी ‘धक्’ से रह गया।

‘तोफान, तोफान’ चिल्लाता वह तट की ओर बढ़ा। ‘तोफान’ का नाम सुनते ही सारी मछलीमार बस्ती बस्ती में एक हड़कम्प मच गया और देखते-ही-देखते औरत, बच्चे, बूढ़े ‘तोफान, तोफान’ चिल्लाते समुद्र के किनारे जमा हो गए। चारों ओर घना अँधेरा ! मोटे सूत की रस्सियों से भी मोटी वर्षा की जलधार ! न कुछ सुनाई दे रहा था न दिखाई। एक प्रलय-सा समुद्र में उठ रहा था। किनारे पर खड़े लोगों के पैरों, घुटनों से लहरें टकराईं तो लोग और भी ऊपर आ गए। जब वहाँ भी पानी ने आ घेरा तो डर से चिल्लाते लोग अपनी झोपड़ियों के पास आ खड़े हुए। समुद्र-तट से आधे फर्लांग तक पानी ऊपर चढ़ आया था। अहंकारी पेड़ों का कहीं पता न था। सहमती लताएँ और घास की पत्तियाँ झुक गईं। झोपड़ियों के पास खड़े लोग उड़े जा रहे थे। उस अँधेरे में मालूम होता था सारी पृथ्वी डूब जाएगी। हवा आँधी बन गई थी और अँधी झंझा। आकाश के एक किनारे से दूसरे किनारे तक गड़गड़ाहट के साथ बिजली कौंध जाती, उससे लगता जैसे समुद्र और आसमान एक हो गए हैं। वे बूढ़े, जिनके लड़के, भाई समुद्र में मछलियाँ पकड़ने गए थे और वे स्त्रियाँ जिनके पति बहुत-सी मछली लाने का वादा करके गए थे, सब थरथर काँप रहे थे। सब चिल्ला रहे थे। पर तेज हवा न किसी का चिल्लाना सुनने देती न घना अँधेरा किसी को रोते देखने देता। समुद्र के किनारे-किनारे एक कतार में चमकने वाली बिजली की बत्तियाँ जैसे कभी थी ही नहीं। जब-तब आसमान की बिजली को छोड़कर कहीं कोई प्रकाश का चिह्न नहीं था। लोगों के हृदय का प्रकाश बुझ रहा था। बाहर खड़े लोगों के मन बिना समुद्र के पानी के ही भय, आशंका में डूबे जा रहे थे। जिनसे खड़ा नहीं रहा गया वे बैठ गए। औरतें माथे पर हाथ रखे, मन मसोस उस अँधेरे में समुद्र का ‘तांडव’ सुन रही थीं। बहुतों ने समुद्र को इतना नाराज कभी नहीं देखा था। लोगों की आँखें झरनों की तरह व्यथा की बूँदों से डबडबा रही थीं। फिर भी भीगती, काँपती, निश्छल, अटल, अडिग स्त्रियाँ समुद्र को देखतीं और ‘खंडाला’ देवता से अपने पतियों, भाइयों, लड़कों के सुरक्षित लौटने की प्रार्थना कर रही थीं। बूढ़े कभी-कभी साहस टूटने पर भविष्य की आशंका से सुबक-सुबक उठते, चिल्ला पड़ते।

रात बीती। सबेरा हुआ। दोपहर हुई। साँझ हुई। पर समुद्र अब भी प्रलय से खेल रहा था। अनन्त वज्राघातों की तरह लहरें एक-दूसरे से लड़ रही थीं। बादलों से ढके सूर्य के हल्के प्रकाश से समुद्र का सभी अन्तर जैसे दहाड़ें मार रहा था। समुद्र और आकाश का भेद समाप्त हो गया था। बहुत से लोग जो तट पर खड़े थक गए थे भाग्य पर विश्वास करके लौट गए। पर कुछ बूढ़े, हीरा, वंशी और सोमा सब एक-दूसरे से दूर एकटक समुद्र की ओर निहार रहे थे। जैसे उनकी आँखों की प्रतीक्षा का अथक बल मिल गया हो। तमाशबीन लोग आते, देखते और चले जाते। बच्चों के झुंड हँसते-खेलते तट पर आ जुड़ते और लौट जाते। उसी समय साँझ के झुटपुटे में वंशी के पास अठारह वर्ष की लड़की रत्ना आई और उसके कंधे से सटकर बैठ गई।

‘‘बाय।’’

वंशी के चेतना जैसे अपने पति को समुद्र से खींच लाना चाहती थी। उसने न लड़की को पहचाना, न उसकी आवाज सुनी। लड़की ने फिर पुकारा, ‘‘बाय, बोलेंगा नईं।’’

रत्ना ने वंशी को जोर से झँझोड़ा और पुकारा, ‘बाय।’ काफी देर बाद जैसे उसे होश आया। उसने निगाह फेरकर रत्ना की ओर देखा ते देखती रह गई। वंशी की आँखों में न आँसू थे, न पहचान। लड़की एकदम रोकर माँ से लिपट गई। बहुत देर बाद आँख उठाकर रत्ना ने देखा तो वंशी की आँखों में आँसू थे। उसने हिचकी भरते हुए पूछा, ‘‘बाय, ए तोफान कब खल्लास होयेंगा।’’

वंशी के मुँह से केवल इतना निकला—

‘‘खंडाला भगवान् जाने।’’

लहरें उस समय भी लहरों से लड़ रही थीं—हजारों क्रुद्ध नागिनों की तरह हवा उस समय भी तेज थी, मानो उनंचास हवाएँ इकट्ठी होकर आ गई हों। वर्षा उस समय भी कभी-कभी समुद्र की छाती पर आकर नाचनें लगती थीं।

तीन दिन और तीन रात जब तक समुद्र में तूफान रहा बरसोवा के मछलीमारों के परिवार ने न कुछ खाया न पिया। निरन्तर समुद्र की ओर ताकते रहे। एक बूढ़ी औरत ने आकर सोमा को सँभाला और पकड़कर ले गई। हीरा का जवान लड़का और पति दोनों समुद्र में गये थे। इसलिए वह लोगों को समझाने-बुझाने पर भी जड़ बनी बैठी रही। चौथे दिन समुद्र के किनारे लाशों से पटे पड़े थे। मानो वीतराग समुद्र ने उन्हें स्वीकार न कर किनारे पर लाकर डाल दिया हो। झुण्ड-के-झुण्ड उन्हें पहचानने को दौड़ पड़े। जिनमें कुछ जान ती उन्हें बाहर निकालकर उल्टा टाँग दिया। सरकार की तरफ से स्टीमरों ने डूबते लोगों को बचाकर किनारे पहुँचा दिया और अधमरे बिट्ठल, नाना, यशवंत, हरिचन्द आदि कुछ लोगों को समुद्र के किनारे पटककर लौट गए। फिर भी बरसोवा के बहुत से मछलीमारों का कुछ भी पता न चला। न वे स्टीमरों से लौटे, न किनारे पर पड़े पाये गये। सामुद्रिक तुफान के बाद मछलीमारों के गाँव बहुत दिन तक अपने आदमियों को खोजते रहे। जागला, बर्लीकार, बाउला कई दिनों बाद डांडा से लाये गए। जिनके आदमी लौटे थे उनके घरों में सत्यनारायण की कथा हुई, भोजन कराया गया ; उत्सव हुए। समुद्र देवता की धूमधाम से पूजा हुई। वंशी ने महाभारत की कथा बैठाई जो एक मास तक चली।

हर साँझ स्त्रियाँ बूढ़े, जवान, बालक सब काम छोड़कर कथा सुनने इकट्ठे होते। वीरता और लड़ाई की कहानियाँ सुनकर श्रोताओं को रोमांच हो आता। भुजाएँ फड़कने लगतीं। बिजली-सी नर्सों में दौड़ जाती। आदमी मूँछों पर ताव देते। स्त्रियों की आँखों में चमक आ जाती। दिन-भर गाँव, समुद्र, घर, बाजार में लोगों के मन पर वीरता का नशा छाया रहता। दो-एक जगह पूरा तो नहीं छोटा-मोटा महाभारत हो गया। लड़कियाँ सुभद्रा, द्रौपदी, सत्यवती के सपने देखतीं और पुरुष भीष्म, अर्जुन, कर्ण, भीम बनने की प्रतिज्ञा करते। समाप्ति के बाद भी महाभारत के पात्रों की वीरता, सौन्दर्य श्रोताओं की आँखों में झूमते रहे। उन्हीं दिनों बिट्ठल की लड़की रत्ना नाना से कहने लगी—

‘‘हम भी मत्स्यगंधा बनेंगा, नाना ? हम भी बनेंगा।’’

‘‘तेरे कू ऐसा भाग किधर होने का जो तू किसी का रानी बन सकेंगा।’’ नाना ने छोकरी की ओर गहराई से देखते हुए कहा—जैसे उसे कम आश्चर्य नहीं हो रहा था। रत्ना आँखें नचाकर मुस्कराती बोली—

‘‘तुम देखेंगा, भाग कू लेने नहीं जाना होयेंगा।’’

इतना कहकर रत्ना आसमान में बिखरे बादलों के टुकड़ों से उतरते अपने सपनों को निहारने लगी। उसकी भारी पलकों वाली बड़ी-बड़ी आँखों में एक नया सपना तैरने लगा। नाना कुछ भी न समझ सका। पर अचानक रत्ना की बातों ने उसकी उत्सुकता को जगा दिया। नाना बहुत सोचने का आदी नहीं था। बहुत दूर तक देखना और सोचना उसके स्वभाव में था भी नहीं। बोला—

‘‘जाने काय शहाणापन ए देखने कू मांगताय।’’

इतना कहता हुआ अपने घुटनों पर हाथ का बल देकर वह उठा और गालों के मोड़ पर चाय वाले की दूकान में जा बैठा।

रत्ना झूले पर पैर लटकाए बालों की चौरी हिलाती रही। कभी-कभी पैर अपने आप हिलकर झूला चलाते रहते। नितम्बों पर लटकती उसकी वेणी, कत्थई रंग की मराठी धोती, जिसकी चौड़ी किनारी माला की तरह गले में लटक रही थी, उसके उभरे स्तनों पर हवा से हिल-हिल उठती। सामने खिड़की में से समुद्र की विशाल और उत्ताल लहरें उठती दिखाई दे रही थीं। नीले और हरे समुद्र के पर्त्त पर अस्ताचलगामी सूर्य की किरणें लहरों से खेल रही थीं। ऊपर आसमान में बादलों के टुकड़े आँक-झाँककर उनका खेल देख रहे थे। रत्ना झूले से उठकर खिड़की पर आ टिकी और देर तक ऊपर ही देखती रही, मानों उसकी आँखें उन खेलों में किसी को पाने के लिए उत्सुक हो उठी हों। वह बहुत देर तक बेभान-सी खड़ी रही।

‘‘रत्ना, ओ रत्ना, एक सिंगल कप पियेंगा। नाना किदर गया। गाठिया बी लेंयगा काय ?’’ कहती वंशी रत्ना के पास चाय का प्याला लिए आ पहुँची। रत्ना जैसे नींद से जागी। बिना कुछ बोले चाय पीने लगी। चाय पीकर प्याला उसने खिड़की में रख दिया और अपने विचारों में खो गई।

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Hindi

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2019

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