Agle Waqton Ke Hain Ye Log

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Agle Waqton Ke Hain Ye Log

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320.00 250.00

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320.00 250.00

Author: Ashok Vajpeyi

Availability: 5 in stock

Pages: 335

Year: 2020

Binding: Paperback

ISBN: 9789389830170

Language: Hindi

Publisher: Setu Prakashan

Description

अगले वक़्तों के हैं ये लोग

अशोक वाजपेयी ने साहित्य और संस्कृति में 60-65 वर्षों का लम्बा सार्वजनिक जीवन बिताया है। कहने की जरूरत नहीं कि यह सार्वजनिक जीवन उनके प्रबन्धन कौशल, प्रशासनिक दायित्वों, काव्य-बोध, साहित्येत्तर कला रूपों के प्रति एक उत्कट जिज्ञासा और दायित्व बोध से निर्मित होता है। इस जिज्ञासा और दायित्व के दायरे में आत्म और पर का युग्म तो है ही, साथ ही सामान्य और विशिष्ट का युग्म भी है। कई बार सामान्य की सामान्यता और विशिष्टता का युग्म भी है। ये दायित्व बोध, जिज्ञासा और युग्म ही अशोक वाजपेयी के संस्मरणों का आधार हैं।

संस्मरण यानी स्मरण यानी स्मृति। ये स्मृतियाँ केवल अपने प्रिय व्यक्तित्वों, महानुभावों को याद करना भर नहीं है। इनमें उन्हें याद तो किया ही गया है, साथ ही उनके प्रति गहरी कृतज्ञता का भाव भी है। संस्मरणों की प्रकृतयाः विशिष्टता है कि इनमें पर के साथ आत्म भी आता ही है। इन संस्मरणों में भी अशोक वाजपेयी का आत्म है। इन सबके साथ ही यह आजादी के बाद का जीवन्त मानवीय सन्दर्भ है। यह इतिहास नहीं है, पर भावात्मक इतिहास है।

‘अगले वक़्तों के हैं ये लोग’ से गुजरना हमें साहित्य, बोध, समय, कल्पना, स्मृति आदि के विशिष्ट अनुभव से आप्लावित करता है। कुछ-कुछ वैसा ही जब आप नवजात अथवा थोड़े बड़े बच्चे को गोद में लेते हैं, तो उसकी धड़कन आपकी हथेलियों पर, आपके दिल पर लगातार दस्तक देती रहती है और बच्चा जब गोद से उतर आता है, तब भी उसकी अनुभूति आपकी हथेलियों या हृदय पर बसी रहती है।

– अमिताभ राय

रज़ा 1978 की अपनी स्वप्रदेश-यात्रा को निर्णायक मानते हैं-इस अर्थ में कि तब तक वे इकोल द पारी यानी पेरिस स्कूल के एक प्रतिष्ठित कलाकार हो चुके थे और वे पहले विदेशी थे जिन्हें 1959 में पेरिस में बसे कलालोचकों का प्रतिष्ठित पुरस्कार ‘प्रो द ला क्रीतीक’ मिला था। लेकिन वे असन्तुष्ट और बेचैन थे। बार-बार यह सवाल उनके मन में उठता था कि अपने चित्रों में वे स्वयं कहाँ हैं, उनकी अद्वितीयता-स्थानीयता-उत्तराधिकार उनकी कृतियों में कहाँ हैं। इस यात्रा में उन्हें, ककैया के प्राइमरी स्कूल में अपने अध्यापक नन्दलाल झरिया ने उनके भटकते मन को एकाग्र करने के लिए स्कूल की दीवार पर एक बिन्दु बना कर उस पर ध्यान लगाने का जो पाठ पढ़ाया था, उसकी याद आयी। उनकी कला ने एक बिल्कुल नया मोड़ लिया और वह बिन्दु के इर्द-गिर्द हो गयी। बिन्दु जो उद्गम है, जिससे शक्ति विकीरित होती है, जो ‘है’ और ‘नहीं’ के बीच अवस्थित है। रज़ा को लगा कि ऐसे अनेक भारतीय दार्शनिक विचार और अभिप्राय हैं जिन्हें आधुनिकता के साथ समरस कर चित्रित किया जा सकता है। उन्होंने तब तक संयोजन, रूपाकार और निर्मिति के जो कौशल, ‘लसें प्लातीक’ अर्जित किये थे, उन्हें अपने निजी भारतीय चिन्तन से जोड़ कर अपने लिए और एक तरह से आधुनिक भारतीय कला के लिए भी कला की एक नयी धारा शुरू की जो पिछले लगभग तीन दशकों से निर्बाध चल रही है…

– इसी पुस्तक से

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Authors

Binding

Paperback

ISBN

Language

Hindi

Pages

Publishing Year

2020

Pulisher

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