Bharat Ki Pratinidhi Lok Kathain

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Bharat Ki Pratinidhi Lok Kathain

Bharat Ki Pratinidhi Lok Kathain

995.00 800.00

In stock

995.00 800.00

Author: Jai Prakash Bharti

Availability: 3 in stock

Pages: 398

Year: 2015

Binding: Hardbound

ISBN: 8170436648

Language: Hindi

Publisher: Atmaram and Sons

Description

भारत की प्रतिनिधि लोक कथाएं

दो शब्द

क्षेत्रीय पैमाने पर लोक-कथाओं के कई संग्रह हिंदी में निकल चुके हैं। यह पहला संग्रह है जिसका पैमाना अखिल भारतीय ढंग का है। सम्पादक ने कथाओं को विषयवार सजाया है। इस प्रकार 26 शीर्षकों के अन्दर इस संग्रह में 96 कहानियां संगृहीत हैं।

लोक-कथाओं और लोकोक्तियों में जनता की युग-युग की अनुभूतियों का निचोड़ संचित रहता है। अतएव राष्ट्र के सांस्कृतिक नवोत्थान में उनका बड़ा भारी महत्व है।

इस संग्रह की कथाएं सहज शैली में रोचक ढंग से लिखी गई हैं। अतएव, मुझे विश्वास है कि ये जनता द्वारा सोत्साह पढ़ी जाएंगी।

भारती जी की स्वच्छ-बुद्धि और मंगलमयी भावना का मुझ पर अनुकूल प्रभाव पड़ा है। इस अत्यंत रोचक और उपयोगी साहित्य के लिए मैं उनका अभिनन्दन करता हूँ।

 

चिंतन के सूत्र

आज के संदर्भ में ‘लोक’ शब्द का अर्थ बड़ा व्यापक हो गया है। उस से जनसाधारण तथा सम्पूर्ण मानव समाज का बोध होता है। ‘लोक’ शब्द का अंग्रेजी पर्यायवाची फोक (FOLK) है और पाश्चात्य विद्वानों ने नगरेत्तर संस्कृति अथवा ग्रामीण-गंवार सांस्कृतिक धारा को इसके अंतर्गत माना है। ‘लोक’ को इस प्रकार गाँव की परिधि में बांधा जाय, इस से मैं सहमत नहीं हूं।

विश्व के सभी भागों में लोक-कथाएं कही–सुनी जाती हैं। जर्मन विद्वान बेनाफी (1859) के अनुसार- ‘विश्व में व्यापक लोक-कथाओं का मूल उद्गम स्थान भारत ही है।’ लेकिन भारत में इन्हें संकलित करने की दिशा में बहुत कम काम हो सका है। फिर भी अभी तक भारत तथा उस के निकटतम देशों में लगभग साढ़े तीन हजार लोककथाएं लिपिबद्ध की जा चुकी हैं।

वेद, उपनिषद् और पुराणों में दो व्याख्यान हैं, लोककथाओं के बीज उन्हीं में हैं। देवर्षि नारद ने रामकथा का एक ही स्वरूप वाल्मीकि के सम्मुख रखा था, लेकिन उसी को आधार बनाकर वाल्मीकि के जन-जन के बीच अथवा लोक-प्रचलित रामकथा के अनेक रूपों का अन्वेषण किया। महाभारत तो ऐसी कथाओं का भंडार ही है। बौद्ध और जैन दर्शन ग्रन्थों में भी ऐसी अनेक कथाओं का समावेश है। पंचतंत्र, हितोपदेश, बेताल पच्चीसी तथा जातक कथाओं की गणना भी लोक-कथाओं के अन्तर्गत करना ही समी-चीन होगा।

कई विद्वानों ने आख्यान साहित्य को दो वर्गों में बांट दिया है- नीतिकथा एवं लोककथा। मेरी दृष्टि में ऐसा वर्गीकरण नितान्त भ्रामक तथा अवैज्ञानिक है। लोककथाओं के पात्र मनुष्य ही हो, इस मान्यता का भी कोई ठोस आधार नहीं है।

लोक-कथाएं लिखने का आरंभिक प्रयास आंध्र के विद्वान गुणाढ्य ने ईसवी की प्रथम शती में किया था। उन का लिखा ग्रन्थ ‘बृहत्कथा’ तो मूल रूप से अब उपलब्ध नहीं है, लेकिन संस्कृत में रचित बृहतकथा मंजरी तथा ‘कथा सरित्सागर’ में उस के प्रमाण प्राप्य हैं। काफी अन्तराल के पश्चात कुछ अंग्रजों तथा उन की कृतियों के नाम उभर कर सामने आते हैं- मिस फेयर (ओल्ड डेक्कन डेज), सर रिचर्ड टेम्पल (लीजेन्ड्स आफ पंजाब), श्रीमती डेकार्ट (शिमला विलेज टेल्स)। इन के अलावा जिन भारतीयों के नाम हमें स्मरण आते हैं, वे है- लालबिहारी दे, तोरुदत्त (एनशयंट बेलेड्स एण्ड लीजेन्ड्स आफ हिंदुस्तान), शोभना देवी (ओरियंटल पर्ल्स) तथा रामास्वामी राजू (इंडियन फेबल्स)। डा. वेरियर एल्विन के ‘फोक-टेल्स आफ महाकौशल’ पुस्तक में लगभग डेढ़ सौ कथाएं संगृहीत की गई हैं। इस के अलावा उन्होंने कुछ और लोक कथाएं भी एकत्र कीं।

इधर के दो दशकों में जिन विद्वानों ने इस दिशा में विशेष रूप से हिन्दी में कार्य किया है, वे हैं- सर्व श्री रामनरेश त्रिपाठी, अगर चन्द नाहटा, डा. सत्येन्द्र, शिवसहाय चतुर्वेदी, डॉ. कन्हैयालाल सहल, डा. कृष्णचन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’, डा. गोविन्द चातक तथा विजयदान देथा आदि। यहाँ मैं श्री रामलाल पुरी के नाम का उल्लेख अवश्य करना चाहूँगा जिन्होंने बड़े साहस के साथ लोक-कथाओं के प्रकाशन का यज्ञ रचाया है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में कोई उनका उल्लेख करे या न करे लेकिन लोक-साहित्य के उन्नायक के रूप में उनका नाम अमर रहेगा।

फिर भी जो कार्य हुआ है, वह क्षेत्र विशेष तक सीमित रहा है। इस महादेश में ऐसे व्यक्ति आगे नहीं आए जो ‘रमते जोगी’ बनकर देवेन्द्र सत्यार्थी अथवा राहुल सांकृत्यायन की तरह दूर-दूर तक घूम सकते और लोककथाओं के मोती बीन कर माला में पिरो देते। यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि हमारे विश्वविद्यालयों ने लोक-साहित्य के साथ न्याय नहीं किया। जो शोध प्रबंध सामने आए हैं, उनमें से अधिकांश सतही हैं और हास्यास्पद भी।

साहित्य के आधुनिक बोधी लोक-साहित्य को उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं, किन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि अनेक आधुनिक कहानियों पर लोककथाओं की छाया है। कई उपन्यास संशोधित लोककथाओं की बैसाखियों पर आगे खिसके हैं। लोककथाओं में जो ऐतिहासिक तत्व, समकालीन परिस्थितियों का जो प्रभाव है, उसे नकारा नहीं जा सकता। इन का मनोरंजानात्मक पक्ष तो विशेष है ही।

प्रस्तुत संकलन के बारे में मुझे कोई दावा नहीं करना है, लोक-साहित्य के अध्ययन-अनुशीलन का जो भवन आगामी वर्षों में खड़ा होना है, उस में यह भी नींव का एक पत्थर बन सके, यही मेरे संतोष के लिए पर्याप्त है।

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Authors

Binding

Hardbound

ISBN

Language

Hindi

Publishing Year

2015

Pages

Pulisher

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