Kasturi Mrig
Kasturi Mrig
₹150.00 ₹128.00
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Author: Shivani
Pages: 139
Year: 2015
Binding: Paperback
ISBN: 9788183611084
Language: Hindi
Publisher: Radhakrishna Prakashan
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Description
कस्तूरी मृग
मैं दृढ़ निश्चय कर चुका था कि जिसने मेरे बचपन से लेकर यौवन तक, मुझे तिल-तिल का मारा है, उससे सूद सहित ऋण उघाकर ही दम लूँगा। मेरे जिस अभिन्न मित्र ने मुझे उसका पता दिया था, उसी ने फर्रुखाबाद के एक ऐसे कुख्यात गिरोह का भी सूत्र थमा दिया, जो केवल दस हजार लेकर शत्रु कंटक को सदा के लिए जड़ से उखाड़ अदृश्य करने में सिद्धहस्थ था।
‘‘तुम्हें पूरी रकम भी एकसाथ नहीं चुकानी होगी, पाँच हजार एडवांस और बकाया पाँच हजार काम पूरा होने पर।’’ एकमात्र वही मित्र मेरी पूरी व्यथा-कथा जानता था, बचपन से हम साथ-साथ बड़े हुए, एक ही स्कूल में सहपाठी रहे। फिर मैं यूनिवर्सिटी चला गया और वह गाँव से चुनाव जीत एक दिन एम.एल.ए. बन गया। कोकीन और अफीम के व्यापार ने उसे वैभव के जिस तुंग शिखर पर पहुँचा दिया, वहाँ मैं अपनी इस ऊँची नौकरी के बावजूद आज तक नहीं पहुँच पाया।
‘‘तुम्हें एक राय दूँगा नन्हे,’’ उसने चलते-चलते मुझे एक सीख दी थी, ‘‘जो हो गया सो हो गया। ऐसी बीसियों कनकें एक दिन तुम्हारे कदम चूमेंगी। क्यों परेशान होते हो ? ईश्वर ने तो तुम्हें सबकुछ दिया है। मारो लात इस नौकरी को और विदेश चले जाओ। वहाँ तुम्हारा अतीत तुम्हें डसने नहीं पहुँच पाएगा।’’
कितना भला था दिनेश। मनुष्य का अतीत क्या कभी उसे छोड़ सकता है ? मान लूँ मेरा अतीत मुझे छोड़ भी दे, मैं क्या उसे छोड़ पाऊँगा ?
‘‘नहीं,’’ मैंने कहा था-‘‘मैं कहीं चला जाऊँ, बाप की नाक मेरा पीछा करती रहेगी।’’
जीवन की पहली स्मृति मुझे माँ के पीले चेहरे और सूजी-निमग्न आँखों की ही है। कभी, वह मुझे छाती से चिपटाए सिसक रही है, और कभी रात-आधी रात को खिड़की खोल अपने उस अलमस्त सहचर की व्यर्थ प्रतीक्षा में खड़ी, न जाने क्या बुदबुदा रही हैं। मैं डरकर चादर मुँह तक खींच लेता था, कहीं अम्माँ पागल तो नहीं हो रही हैं ? पहले तो मेरे पिता घर पर रहते ही बहुत कम थे, कभी अपनी जमींदारी सँभालने गाँव चले जाते और कभी बनारस। अम्माँ, मुझे पढ़ाने तक हमारी गाजीपुरवाली कोठी में रहती थीं।
संगीत-प्रेम ने ही हमारे खानदान को हमेशा डुबोया है। मेरे संगीत-प्रेमी बाबा ने यह गाजीपुरवाली कोठी अपनी प्रसिद्ध संगीत महफ़िलों के लिए ही बनाई थी। दूर-दूर से ख्याति प्राप्त संगीतज्ञों का नवरात्र पर इसी कोठी में दशहरा-दरबार लगता। जिस वर्ष मेरा जन्म हुआ उसी वर्ष मेरे बाबा नहीं रहे। अम्माँ बताती थीं कि मृत्यु से पूर्व आखिरी बार बाबा ने यह दशहरा-दरबार मनाया था, उसी बार पटना की प्रख्यात गायिका चन्द्रावली अपनी किशोरी पौत्री राजेश्वरी को अम्माँ की छाती पर मूँग दलने छोड़ गई। सेनिटोरियम से अस्वाभाविक सुर्खी, आँखों में जीने की ललक लेकर ही बेचारी अम्माँ लौटी थीं। उन्हें सेनिटोरियम पहुँचाने भी घोष बाबू ही गए थे और लेने भी वे ही गए, मेरे पिता को पत्नी के लिए अवकाश ही कब होता था। स्टेशन पर लेने मैं अकेला ही आया हूँ देख, एक पल को अम्माँ का चेहरा मुरझा गया था। फिर लपककर उन्होंने मुझे छाती से लगा लिया। माँ की वह विस्मृत परिचित सुगन्ध मेरे मन-प्राण पुलकित कर गई। अम्माँ, अब मुझे छोड़कर कहीं नहीं जाएँगी, मुझे लगा दुःसाहसी मृत्यु को हम दोनों माँ-बेटों ने मिलकर दूर धकेल दिया है।
घर पहुँचते ही अम्माँ ने फिर अपनी अस्तव्यस्त गृहस्थी के ओर-छोर सँभाल लिए थे। स्कूल से लौटता तो देखता भारी-भारी बक्से खोल, अम्माँ एक-से-एक कीमती रेशमी परिधान, जामेवार शॉल-दुशाले, बाबा के हैदराबादी अँगरखे, पिता के रेशमी कुरते धूप में सुखा रही हैं। मुझे नेप्थलीन की गोलियों की वह महक बड़ी अच्छी लगती थी; मैं कभी उठा-उठाकर, अम्माँ की साड़ियाँ सूँघता, कभी लपक कर बाबा का रेशमी अँगरखा पहन, उसकी ढीली निर्जीव बाँहों में, अपने लगभग खो गए हाथों को हिला-हिलाकर, उस हवेली संगीत को दुहराने लगता जिसे अपने सुरीले कंठ से परिवेशित कर मेरे पिता हमारे इसी आँगन की दीवारें कँपा देते थे। मालव राग की वह बंदिश आज, मैं भी कभी-कभी अपनी इस जनशून्य कोठी में, ठीक वैसे ही दोहरा उठता हूँ, अन्तर यही है तब इस कोठी की दीवारें मेरे पिता के रौबीले कंठस्वर में काँपती थीं, आज स्वयं मैं काँपने लगता हूँ। कभी इसी हवेली में संगीत की प्रस्तुति मेरे पिता के संगीत के जलसे की विशेषता थी, एक-से-एक परम्परासमृद्ध गायक, हमारे गृह के राधागोविन्द मन्दिर के प्रांगण में, इसी गीत के निवेदन से देखते-ही-देखते, रहस्यमय गाम्भीर्य का चँदोवा टाँककर रख देते थे, ‘‘जय जय लाल गोवर्धनधारी !’ आज वैसी प्राणवंत अकृत्रिम गायकी के परम्परासमृद्ध गायक कहाँ खो गए ! कहाँ विलीन हो गए वे परिच्छिन्न कंठ। जनाब गुलाम मुहम्मद, मेरे संगीत गुणग्राही पिता के परम मित्रों में थे, कश्मीर के अतीन्द्रियवादियों की संगीत शैली के प्रमुख गायक जनाब गुलाम मुहम्मद साहब स्वयं संतूर बजाकर अपना सूफियाना कलाम पेश करते तो मजलिस में आई एक-से-एक ख्यातिप्राप्त पेशेवर गायिकाओं की गर्वोन्नत अहंकारी ग्रीवाएँ जैसे कट-कटकर जमीन पर बिछ जातीं। केवल हारमोनियम और करताली के माध्यम से प्रदर्शित छन्दबद्ध गायकी में उस दिव्य कंठ के ईर्षणीय ऐश्वर्य की दपदपाहट का झाड़फानूस, महफिल के टिमटिमाते दीयों को श्रीहीनकर, एक ही फूँक में बुझा देता। जैसा ही दृप्त कंठस्वर, वैसा ही स्वतः सज्ञान गायकी। बाबा फरीद, बुल्लेशाह की रचनाओं को गाते-गाते वे कभी स्वयं रोने लगते। इधर मेरे पिता की रूपसी गोपिकाएँ रोते-रोते बेदम हो जातीं और उधर चिक के पीछे बैठी मेरी अम्माँ।
बाद में जब एक दिन अपने बचकाने प्रयास में बुल्लेशाह की वही बंदिश अविकल दोहरा, अम्माँ को चकित करने की चेष्टा की तो उसने घबराकर मेरा हाथ थाम लिया, ‘‘नन्हे, तू तो एकदम अपने बाप पर जा रहा है रे। ऐसा मत होने देना बेटा।’’ वह रोने लगी थीं। मैं तो सोच रहा था अम्माँ मुझे प्रशंसा से विह्वल हो छाती से लगा लेंगी कि शाबास बेटे, तेरे पिता ने उस्ताद से गंडा बँधवाया था पर तू तो बिना गंडा बँधवाए ही उनसे आगे निकल गया ! बहुत बाद में समझ में आया कि अम्माँ उस दिन क्यों रोयी थीं। इसी संगीत-प्रेम ने तो हमारे खानदान की लुटिया डुबोयी थी। पहले बाबा को अँगुली पकड़कर संगीत के अमृतधाम में पहुँचाया, जहाँ से लौटे तो रक्षिता साथ लग आयी; यही मेरे पिता ने किया। अन्तर इतना ही था कि वे मेरे बाबा से कुछ समझदार निकले। अपनी प्रिय रक्षिता को, वे कभी साथ नहीं लाए। काशी में ही गंगापार उसके लिए एक आलीशान कोठी बनवा दी। वही था उनका स्थायी निवास, हमारे लिए तो वे जीवन-भर दुर्लभ पाहुने ही बने रहे। हमारे गृह का सम्पूर्ण संचालन घोष बाबू करते थे। उनकी आकस्मिक नियुक्ति भी उनकी संगीत-प्रतिभा के बूते ही हुई थी। उनकी शिक्षा तो केवल हाईस्कूल तक ही हुई थी किन्तु उनका संगीतज्ञान था विशद्। उनके पिता राखाल घोष वर्षों तक बड़ौदा महाराज के पेशेदार रहे थे, उनके पुत्र, हमारे मैनेजर पंचानन घोष ने दिन-रात दरबारी गायकों को सुनते-सुनते समझने की योग्यता प्राप्त कर ली थी। आगरा घराने की गायकी, बोल-विस्तार-तान-प्रकार का व्याकरण कंठस्थ कर वे स्वयं अपनी सुरीली दानेदार तानमाला से श्रोताओं को स्तंभित करने लगे थे। मेरे पिता ने किसी कान्फ्रेंस में उनका गाना सुना और साथ ले आए, मेरी नींद बड़े भोर घोष बाबू के मंद्रसप्तकी रियाज से ही टूटती थी। जैसा ही गरम गला था, वैसा ही नरम मिजाज। घोर कृष्णवर्णी अमावसी रंग, गोल-मटोल चेहरे पर सब समय लगी अलमस्त दूधिया हँसी और बहुत बड़ी-बड़ी लाल डोरीदार आँखें। बातें करने का ढंग भी परिहासपूर्ण।
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Binding | Paperback |
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Language | Hindi |
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Publishing Year | 2015 |
Pulisher |
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