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Description
नये युग में शत्रु
एक बेगाने और असंतुलित दौर में मंगलेश डबराल अपनी नयी कविताओं के साथ प्रस्तुत हैं-अपने शत्रु को साथ लिये ! बारह साल के अन्तराल से आये इस संग्रह का शीर्षक चार ही लफ्जों में सब कुछ बता देता है : उनकी कला-दृष्टि, उनका राजनितिक पता-ठिकाना, उनके अंतःकरण का आयतन ! यह इस समय हिंदी की सर्वाधिक समकालीन और विश्वसनीय कविता है ! भारतीय समाज में पिछले दो-ढाई दशक के फासिस्ट उभार, सांप्रदायिक राजनीति और पूँजी के नृशंस आक्रमण से जर्जर हो चुके लोकतंत्र के अहवाल यहाँ मौजूद हैं और इसके बरक्स एक सौंदर्य-चेतस कलाकार की उधेड़बुन का पारदर्शी आकलन भी ! ये इक्कीसवीं सदी से आँख मिलाती हुई वे कविताएँ हैं जिन्होंने बीसवीं सदी को देखा है ! ये नये में मुखरित नये को भी परखती हैं और उसमें बदस्तूर जारी पुरातन को भी जानती हैं।
हिंदी कविता में वर्तमान सदी की शुरुआत ही ‘गुजरात के मृतक का बयान’ से होती है। ऊपर से शांत, संयमित और कोमल दिखनेवाली, लगभग आधी सदी से पकती हुई मंगलेश की कविता हमेशा सख्तजान रही है-किसी भी चीज के लिए तैयार। इतिहास ने जो जख्म दिये हैं उन्हें दर्ज करने, मानवीय यातना को सोखने और प्रतिरोध में ही उम्मीद का कारनामा लिखने के लिए हमेशा प्रतिबद्ध। यह हाहाकार की जबान में नहीं लिखी गयी है; वाष्पिभूत और जल्दी ही बदरंग हो जानेवाली भावुकता से बचती है। इसकी मार्मिकता स्फटिक जैसी कठोरता लिये हुए है इस मामले में मंगलेश ‘क्लासिसिस्ट; मिजाज के कवी हैं-सबसे ज्यादा तैयार, मंजी जी, और तहदार जबान लिखनेवाले।
मंगलेश असाधारण संतुलन के कवी हैं-उनकी कविता ने न यथार्थ-बोध को खोया है, न अपने निजी संगीत को। वे अपने समय में कविता की एतिहासिक जिम्मेदारियों को अच्छे से सँभाले हुए हैं और इस कार्यभार से दबे नहीं हैं। मंगलेश के लहजे की नर्म-रवी और आहिस्तगी शुरू से उनके अकीदे की पुख्तगी और आत्मविश्वास की निशानी रही है। हमेशा की तरह जानी-पहचानी मंग्लेशियत इसमें नुमायाँ है और इससे ज्यादा आश्वस्ति क्या हो सकती है कि इन कविताओं में वह साजे-हस्ती बे-सदा नहीं हुआ है जो ‘पहाड़ पर लालटेन’ से लेकर उनके पिछले संग्रह ‘आवाज भी एक जगह है’ में सुनाई देता रहा था। ‘नये युग में शत्रु’ में उसकी सदा पूरी आबो-ताब से मौजूद है।
Additional information
Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2013 |
Pulisher |
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