Ras Ki Laathi

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295.00 250.00

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Author: Ashtbhuja Shukla

Availability: 5 in stock

Pages: 119

Year: 2019

Binding: Hardbound

ISBN: 9789388933520

Language: Hindi

Publisher: Rajkamal Prakashan

Description

रस की लाठी

अष्टभुजा शुक्ल वर्तमान हिन्दी कविता के पेन्ट हाउस से बाहर के कवि हैं जिनकी कविता का सीत-घाम देस के अन्दर के अहोरात्र से निर्धारित होता है, उस अहोरात्र के प्रतिपक्ष में तैयार किए गए उपकरणों से नहीं। उनका प्रकाश्यमान संग्रह ‘रस की लाठी’ भी उनके पूर्व प्रकाशित चार संग्रहों की तरह ही ऐसी ‘छोटी-छोटी बातों’ का बयान है जिनसे चाहे ‘अमेरिका के तलवों में गुदगुदी भी न हो किन्तु जो समूचे हिन्दुस्तान को रुलाने के लिए काफी हैं।’ रस को इस लाठी में चोट और मिठास एक दूसरे से कोई मुरौवत नहीं करते, किन्तु इस बेमुरौवत वर्तमान में भी एक सुरंग मौजूद है जिसका मुहाना भूत और भविष्य को संज्ञाओं के एक दूसरे में मिथुनीकृत हो जाने से बताए जानेवाले कालखंड की ओर खुलता है जिसमें वसन्त अभियोग नहीं है और पंचम स्वर में मंगलगान की छूट होगी। इस कालखंड को काव्य सृष्टि में भूत का ठोस भरोसा सरसों और गेहूँ की उस पुष्टि-प्रक्रिया पर टिका है जिसे सारी यांत्रिकता के बाबजूद मिट्टी, पानी और वसन्त की उतनी ही जरूरत है जितनी हमेशा से रही है, और भविष्य का तरल आश्वासन उतना ही मुखर है जितनी स्कूल जाती हुई लड़की को साइकिल को घंटी या गोद में सो रहे बच्चे के सपने में किलकती हँसी होती है।

ये कविताएँ उन आँखों को आँखनदेखी हैं जिनसे टपकते लहू ने उन्हें इतना नहीं धुंधलाया कि वे सूरज की ललाई न पहचान सके। लेकिन भले ही कविता में इतनी ऊर्जा बचा रखने की दृढता हो कि वह बुरे वक्त की शबीह-साजी तक अपनी तूलिका को न समेट ले, डिस्टोपिया को ठिठुरन से सामना करने के लिए ऊँगलियों की लचक को कुछ अतिरिक्त उमा का ताप दिखाना ही पड़ता है। अष्टभुजा जी के पाठकों से यह बात छिपी न रहेगी कि उनकी कविता के जो अलंकार कभी दूर से झलक जाया करते थे, वे अब रीति बनकर उसकी धमनियों में दिपदिपा रहे हैं और उसकी कमनीयता अपनी काव्य सृष्टि की ‘फ़लानी’ की उस ‘असेवित देहयष्टि’ की कमनीयता है जिसकी गढ़न में अगली पीढी की जवानी तक पहुंचने बाली प्रौढता भी शामिल है।

अष्टभुजा जी की कविता का मुहावरा समय के साथ उस बढ़ते हुए बोझ के सँभालने की ताकत और पुख्तगी अपने भीतर सहेजता रहा है जिसके तले आज की हिन्दी कविता के अधिकतर ढाँचे उठने के पहले ही भरभरा पड़ते हैं। जो लोग उनकी कविता से पहली बार इस संग्रह के नाते ही दुचार होंगे, उन्हें भी उसकी उस रमणीयता का आभास होगा जो अपने को निरन्तर पुनर्नवीकृत्त करती रहती है और जिसके नाते उसके अस्वादकों को उसका प्रत्येक साक्षात्कार एक आविष्कार लगता है।

– वागीश शुक्ल

Additional information

Weight 0.5 kg
Dimensions 21 × 14 × 4 cm
Authors

Binding

Hardbound

ISBN

Language

Hindi

Pages

Publishing Year

2019

Pulisher

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