सन् 1949 में लुधियाना के एक संयुक्त आध्यात्मिक परिवार में जन्म हुआ। पूरा परिवार निरंकारी मिशन से जुड़ा था, इसलिए मैं बचपन से ही परिवार के साथ सत्संग में जाने लगी। सत्संग से लौटने के बाद घर में विभिन्न बिंदुओं पर चर्चा होती थी। थोड़ी बड़ी हुई तो जिज्ञासावश कुछ प्रश्न-प्रतिप्रश्न भी करने लगी। स्कूली शिक्षा लुधियाना में ही हुई, लेकिन मन सत्संग और भारतीय मनीषा में ग्रंथों को पढ़ने में ही लगा रहा। सन् 1967 में विवाह के बाद मैं राँची आ गई। यहाँ भी मुझे आध्यात्मिक परिवेश मिला। संस्कृत के प्रति मेरी अभिरुचि स्कूल के दिनों से ही थी, इसलिए राँची में घर-गृहस्थी सँभालते हुए मैंने धार्मिक ग्रंथों के अध्ययन-मनन तथा यथासंभव अनुशीलन का कार्य जारी रखा। इसी बीच अंतर्मन में उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने की अकुलाहट ने मुझे लिखना-बोलना सिखा दिया। यदा-कदा पत्र-पत्रिकाओं में भी लेख छपने लगे। ‘गीता में ज्ञानयोग’ प्रथम पुस्तक है।
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