Ekh Chusta Ishwar

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Ekh Chusta Ishwar

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200.00 160.00

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Author: Hemant Kukreti

Availability: 5 in stock

Pages: 152

Year: 2023

Binding: Paperback

ISBN: 9789392228148

Language: Hindi

Publisher: Setu Prakashan

Description

ईख चूसता ईश्वर

‘ईख चूसता ईश्वर’ हेमंत कुकरेती का छठा काव्य-संग्रह है। इस संग्रह की कविताओं में आद्यन्त एक बात पाठकों को आकर्षित करती है; वह आसपास की दुनिया, जिससे हमारा एक नागरिक के रूप में सामना होता ही रहता है। हेमंत कुकरेती का काव्य-संसार एक नागर संसार है। इसमें पुरस्कार की राजनीति है, प्रतिरोध को वमन बना देने वाला प्रकाण्ड पाण्डित्य है। पर हेमंत कुकरेती अपने काव्य-संसार की जो रचना करते हैं, वह महत्त्वपूर्ण है। इसका सिंहावलोकन करें तो हमें ज्ञात होगा कि ये कविताएँ आसपास की जिन प्रवृत्तियों को पकड़ती हैं, उनकी प्रक्रियाओं में ही समाप्त होती हैं। प्रक्रियाओं में समाप्त हो जाने के विशिष्टार्थ हैं।

दुनिया का सर्वांश स्वच्छ और धवल नहीं, शुचि नहीं है। कवि उसे स्वच्छ, धवल और शुचि दिखाता भी नहीं। ये कविताएँ बदरंग दुनिया के विरुद्ध कोई अति आक्रामक शब्दजाल नहीं हैं। ये प्रतिरोध की उग्रतर अभिव्यक्तियाँ भी नहीं हैं। ये कविताएँ प्रक्रियाओं को पहचानती हैं और अपना अहिंसक विरोध दर्ज भर कर देती हैं। कवि कहता है-‘जिन कामों के लिए होना था शर्मिन्दा/उनके लिए मिल रहे हैं इनाम।’ साथ ही वह कहता है-‘मैं जीवन नहीं, जीवन का सबसे संक्षिप्त पग हूँ/ व्याख्याएँ बदल सकती हैं/ सार नहीं।’ एक अन्य कविता में कवि कहता है-‘अपने घावों पर समय का शहद लगाकर लड़ते हैं/ लड़ते ही रहना होता है उन्हें/ यही होती है उनकी कहानी !’ यह उनकी कहानी है-उनकी माने ? यह कविता से बेशक उतना स्पष्ट नहीं है। शायद इसकी बहुत आवश्यकता भी नहीं होती कविता के संसार में।

समाज की गति की समझ रखने वाला पाठक इसके सहारे उन अन्यार्थों तक पहुँचता है जो कवि का विशिष्टार्थ है। इसका कारण सम्भवतः यह है कि इन कविताओं में कवि ने किसी यूटोपिया या डिस्टोपिया का निर्माण नहीं किया। दुनिया शान्त रूप में अच्छी-बुरी जैसी उसने पायी है, वैसी ही उसने शान्त-मन्थर काव्य-दुनिया बनायी है। कविता के विशिष्टर्थों के निर्माण में व्यंग्य, विद्रूप, विडम्बनाएँ ज़ाहिर तौर पर उसके हथियार हैं।

इसके अतिरिक्त इस संग्रह की कविताओं में एक और सघन स्वर है, जहाँ कवि पहाड़ को, पिता को, निजी सम्बन्धों को याद करता है। इन कविताओं में मनुष्यों का सहज राग है। राग जो मनुष्यता का आदिम संगीत है। मनुष्य ही क्‍यों मनुष्येतर प्राणियों का भी। इस राग के कारण कवि पहाड़ को ‘धरती की कोख’ कहता है। इस राग का दूसरा सिरा है-‘बहुत दूर है पहाड़ों से अयोध्या।’ आज के समय में यह पंक्ति कितनी व्यंजक और विशिष्ट है, यह हर सहृदय पाठ जानता है।

कुल मिलाकर हेमंत कुकरेती का काव्य-संसार इन दो सिरों के बीच बसा है-राग और आकांक्षा के दरमियान। आकांक्षाओं के समानान्तर काली दुनिया है-‘इतनी बुरी भी नहीं है/ यह दुनिया/इसमें सफेद से ज्यादा/ चमकता है काला/ बस यही कमी है।’ इसे सुन्दर-असुन्दर से अलग रखकर व्याख्यायित करना होगा। पाठक इसे सहृदयता से ग्रहण करेंगे-ऐसी उम्मीद है।

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Authors

Binding

Paperback

ISBN

Language

Hindi

Pages

Publishing Year

2023

Pulisher

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