- Description
- Additional information
- Reviews (0)
Description
गुण्ठन
1
किसी माता-पिता के लिए जीवन की सबसे अधिक आनन्दप्रिय घड़ी वह होती है, जब वे अपनी संतान को साफ़-सुथरा, स्वस्थ, सुखी और सब प्रकार से सम्मानित देखते हैं। किसी सम्राट की भांति—जो प्रजा को धन-धान्य से सम्पन्न, सुख-सुविधा से युक्त और निर्भय देखता है—वे भी अपनी सन्तान को वैसा ही देखकर सुख का अनुभव करते हैं। वे जानते है कि यह उनके जीवन-भर के परीश्रम का फल है। ये हैं, जो वे निर्माण करने में सफल हुए हैं। ये सुन्दर हैं, सबल हैं, स्वस्थ हैं, सुखी हैं और लोक में सम्मानित हैं। यह विचार ही उनको आनन्दित करने के लिए पर्याप्त होता है।
भगवतस्वरूप के मन की भी यही अवस्था होती थी, जब वह अपने काम से सायंकाल घर आता और सब बाल-बच्चों को अपने चारों ओर एकत्रित कर उनसे बातचीत, हंसी-ठट्टा और विनोद करता था। उसने एक नियम-सा बना लिया था कि रात को वह परिवार में बैठकर ही भोजन करता था और इस प्रकार, जहां उसका चित्त प्रसन्न होता था, वहां बच्चे भी इतने समय पिता की संगत में रहते थे।
गृहिणी सुशीलादेवी अपने पति के सुख-दुःख की भागीदार थी। वह निश्चित समय पर भोजन तैयार कर, अपने पति की न केवल स्वयं प्रतीक्षा करती थी, अपितु सब बच्चों को साफ़-सुथरे कपड़े पहनाकर इस अवसर के लिए तैयार रखती थी।
भगवतस्वरूप अब अड़तालीस वर्ष की आयु का था और यह कार्यक्रम तेईस वर्षों से—जब से उसका विवाह हुआ था—चल रहा था। उस समय भगवतस्वरूप के माता-पिता जीवित थे। आरम्भ में तो उन्हें अपने लड़के का यह कार्य कुछ लज्जाहीन प्रतीत हुआ था। उसकी मां ने कहा था-‘‘भगवती, बहू को क्या कहते हो ? इस प्रकार तुम्हारे लिए सज-धज कर बैठने पर उसे लाज लगती है।’’
पुत्र हंस पड़ा था। उसने कहा था, ‘‘लज्जा की क्या बात है, मां ? उसके पास अच्छे-अच्छे कपड़े हैं। वे पहनने के लिए ही तो हैं। फिर, जब मैं आता हूं, तो उनके पहनने का इससे अच्छा अवसर और कब हो सकता है ?’’
‘‘इससे क्या लोभ होगा ? कभी महल्ले-टोले में जाना हो, किसी के घर ख़ुशी में अथवा मां के घर जाना हो, तब तो ऐसे कपड़े पहनने ही होते हैं। इस समय उनको पहनकर ख़राब करने से क्या लाभ है ?’’
‘‘यह बात तो मेरी समझ में नही आयी, मां ! कपड़े लाकर दूं मैं और पहनकर दिखाये महल्ले-टोले में ! नहीं मां ! यह नहीं होगा। मां के घर जायेगी, तो वे कपड़े पहनकर जायेगी, जो इसकी मां ने इसे दिए हैं। उनको यह संभालकर रख छोड़े। मैं तो इसे उन कपड़ों में देखना चाहता हूँ, जो मैंने लाकर दिये हैं और उनमें से वह, जो सबसे बढ़िया हैं।’’
भगवतस्वरूप का पिता साधु-स्वभाव का व्यक्ति था। वह घर की बातों में हस्तक्षेप नहीं करता था। जब भगवतस्वरूप की मां उत्तर नहीं दे सकी, तो यह प्रथा ही बन गयी थी। जिस समय भगवतस्वरूप काम से आकर कपड़े बदलकर खाने के लिए आता, तब उसकी स्त्री सुशीलादेवी अपने सबसे बढ़िया कपड़ों में और आभूषणों से अलंकृत होकर उसके लिए भोजन लाती। कभी-कभी उसकी मां भी समीप आ बैठती और सब इकट्ठे भोजन करते। इस समय वे कभी घर के सम्बन्ध में, कभी देश-विदेश की और कभी इतिहास की बातें करते।
एक दिन, जब सब रात के विश्राम के लिए जाने वाले थे, सुशीला ने कहा, ‘‘मांजी, अभी तक आपके इकट्ठे भोजन करने के व्यवहार पर प्रसन्न नहीं हुईं।’’
‘‘शील !’’-वह इसी प्रकार अपनी स्त्री को बुलाया करता था—‘‘क्या तुम भी प्रसन्न नहीं हो ?’’
‘‘मुझे तो कोई कष्ट नहीं होता। मेरा तो अब स्वभाव बन गया है। सायंकाल का भोजन तैयार कर मुंह-हाथ धो कंघी करने बैठ जाती हूं। ठीक साढ़े आठ बजे कपड़े पहनकर तैयार हो जाती हूं और आपके लिए खाना ले आती हूं।’’
‘‘मैं कष्ट की बात नहीं पूछ रहा। मैं तो यह जानना चाहता हूं कि क्या तुम्हें मेरे पास आकर बैठने में प्रसन्नता नहीं होती ?’’
‘‘जब आप मुझे देखकर सन्तोष अनुभव करते हैं, तो मेरा मन आनन्द से भर जाता है। भला अप्रसन्न होने की बात इसमें कैसे आ सकती है ?’’
Additional information
Authors | |
---|---|
Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2007 |
Pulisher |
Reviews
There are no reviews yet.