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Description
जुगलबंदी
‘जुगलबंदी’ उन द्वन्द्वात्मक स्थितियों की अभिव्यक्ति है जिनमें आज़ादी के तेवर हैं तो ग़ुलामी की मानसिकता भी। दूसरे विश्वयुद्ध से लेकर आज़ादी मिलने तक का समय जुगलबंदी में सिमटा हुआ है। यह समय अजीब था…इसे न तो गुलामी कहा जा सकता है और न आज़ादी। इसी गाथा की महाकाव्यात्मक परिणति है ‘जुगलबंदी’।
इस उपन्यास में यह तथ्य उभरकर आया है कि रचनात्मक रूप में जो लोग क्रान्ति से जुड़े थे वे कुंठा-मुक्त नहीं थे और जिन्होंने ब्रिटिश शासन के दौरान उस व्यवस्था में अपना स्थान बना लिया था वे भी स्वयं को कुंठाग्रस्त पा रहे थे। ‘जुगलबंदी’ में लेखक ने इसका हृदयस्पर्शी चित्रण करते हुए बहुत सजगता के साथ रेखांकित किया है कि इस द्वन्द्वात्मक स्थिति में एक तीसरी जमात भी थी जो न तो क्रान्ति में शामिल थी और न शासन में उसका कोई स्थान था। वह उस पूरे संघर्ष के दबाव को अपने शरीर और आँतों पर झेल रही थी। टूटने और बनने की इस प्रक्रिया को ‘जुगलबंदी’ में व्यापक कैनवस मिला है जिस पर उस पूरे युग का प्रतिबिम्बन है – आज की भाषा और आज के मुहावरों के साथ, मुग्धकारी और हृदयस्पर्शी।
Additional information
| Authors | |
|---|---|
| Binding | Paperback |
| ISBN | |
| Pages | |
| Publishing Year | 2015 |
| Pulisher | |
| Language | Hindi |











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