Hulhulia

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Hulhulia

Hulhulia

199.00 149.00

In stock

199.00 149.00

Author: Ravindra Bharti

Availability: 5 in stock

Pages: 120

Year: 2023

Binding: Paperback

ISBN: 9788195948406

Language: Hindi

Publisher: Radhakrishna Prakashan

Description

हुलहुलिया

रवीन्द्र भारती हिन्दी के उन नाटककारों में हैं जिनके लिखे नाटक पिछले कुछ दशकों से हिन्दी रंगमंच पर लोकप्रिय रहे हैं। उनके लेखकीय सरोकार व्यापक हैं। वे उन समस्याओं, दुश्चिन्ताओं को अपनी रचना में ला रहे हैं जिनसे मनुष्य और समुदाय की पहचान जुड़ी है।

‘हुलहुलिया’ नाटक एक कल्पित जनजाति हुलहुलिया के बारे में है। यह जनजाति पेड़ और पानी के बारे में गहरी जानकारी रखती है। अपने को पेड़ और पानी का डॉक्टर कहती है पर उसकी अपनी पहचान संकट में है। उसके पास कहीं के निवासी होने का कोई लिखित दस्तावेज़ नहीं है। ऐसे समूहों में ज़्यादातर घुमन्तू जनजातियाँ हैं, जिनका मानव-सभ्यता में बड़ा योगदान रहा है। वे नए आविष्कारों को एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाती रही हैं, लेकिन राष्ट्र-राज्य के उदय के बाद वे अपने को संकट में पा रही हैं। राज्य उनके होने का प्रमाण माँगता है जो उनके पास नहीं है। उनका क्या होगा? ‘हुलहुलिया’ नाटक ऐसे ही सवालों को उठाता है।

नाटक जिस सामाजिक पक्ष की तरफ इशारा करता है, उसकी चर्चा भी ज़रूरी है। जिस कल्याणकारी राज्य की स्थापना आम लोगों के हित में की गई थी, या कम से कम ऐसा सोचा गया था, वह आज अपने में बेहद आततायी बनता जा रहा है। उसके भीतर जो कल्याणकारी तत्त्व बचे हुए थे, उन्हें भी बड़ी पूँजीवाले हड़प ले रहे हैं। ‘हुलहुलिया’ मुख्य रूप से इसी सच का साक्षात्कार कराता है।

—रवीन्द्र त्रिपाठी ‘राष्ट्रीय सहारा’, दिल्ली

‘हुलहुलिया’ प्रसिद्ध कवि-नाटककार रवीन्द्र भारती का बेहद महत्त्वपूर्ण नाटक है। अपने जीवन्त समस्याकुल कथ्य के कारण बहुत गहरे उतरने वाला यह नाटक आदिवासियों की लुप्तप्राय: आबादी और उनके संघर्ष को व्यक्त करता है और प्रकारान्तर से परम्परा, संस्कृति और मूल्यों को बचाने के हर तरह के संघर्ष का नाटक बन जाता है। अपनी बुनियादी सुविधाओं के लिए संघर्ष करते लोग उस समय हमारी प्रेरणा बनने लगते हैं जब हम अपनी सुविधाओं की चीज़ों को एक-एक कर नष्ट होते देखते हैं। इस रूप में देखें तो यह नाटक जहाँ समाप्त होता है, वहीं से असल समस्या शुरू होती है। हमारी छीनी जा रही ज़मीन, मिटाए जा रहे जंगल, नष्ट होते स्वदेशी उद्योग, पहाड़ों को तोड़कर बनते मॉल, नदियों को निगलते बाँध और एकरूप बनाई जा रही सांस्कृतिक पहचान उस बहुलतावादी और वैविध्यपूर्ण परम्परा को मिटा डालने की घृणित योजना का हिस्सा हैं जिसमें हमारा कुछ भी नहीं बचनेवाला।

इस रूप में देखें तो यह नाटक मनुष्य जीवन के बुनियादी सवालों का नाटक बन जाता है।

—ज्योतिष जोशी ‘अमर उजाला’, दिल्ली

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Authors

Binding

Paperback

ISBN

Language

Hindi

Pages

Publishing Year

2023

Pulisher

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