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Description
जल की प्यास न जाए
प्राक्कथन
सन् 1965 में सरदार कर्त्तार सिंह दुग्गल को साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिलने पर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था,-‘‘मुझे यह जानकर ताज्जुब हो रहा है कि…(इन्हें) पंजाबी का पुरस्कार मिला है मैं तो अब तक उन्हें हिन्दी का लेखक ही समझता रहा हूँ।’’ यह अनुभव बहुत से पाठकों का होता है क्योंकि दुग्गल साहब चाहें मौलिक रूप से पंजाबी में लिखते हैं उनकी कृतियां हिन्दी में भी लगातार आती रहती हैं और मौलिक होने का आभास देती हैं। जल की प्यास न जाए पंजाबी में 1984 में आ चुका है। अब साहित्य अकादेमी की भारतीय उत्कृष्ट साहित्य प्रकाशित करने की योजना के अन्तर्गत शीघ्र ही हिन्दी में निकलने जा रहा है।
भारतीय साहित्य में सरदार कर्त्तार सिंह दुग्गल का नाम उन गिने-चुने शीर्षस्थ साहित्यकारों में है जिन्होंने प्रचुरता से लिखा है, लिख रहे हैं, बहुत लोकप्रिय हुए हैं, बार बार पुरस्कृत हुए हैं और जिनका योगदान साहित्य के बौद्धिक विकास में बहुत महत्वपूर्ण रहा है। उनकी रचनाएँ प्रबुद्ध पाठक भी उतनी ही रुचि से पढ़ता है जितना की सामान्य पाठक।
साहित्य के दो पहलू होते हैं एक तो वह जो सिर्फ मनोरंजन के लिए लिखा गया हो और दूसरा वह जो मानवीय मूल्यों को सामने रख कर उनकी पुष्टि में रचा गया हो।
कर्त्तार सिंह दुग्गल की रचनाओं में इन दोनों दृष्टिकोणों का सरस सामंजस्य मिलता है। जल की प्यास न जाए में अगर एक तरफ जनप्रिय कथात्मक रस है, साधारण प्रेम कहानी का आकर्षण है तो दूसरी तरफ पंजाब का ही नहीं वरन् समूचे भारत का कराहता इतिहास है, हमारी बिगड़ती सामाजिक परिस्थितियों का सजीव चित्रण है, 1975-76 के दौरान सरकार द्वारा घोषित आपातकालीन अवस्था के समय जन साधारण पर हुए अत्याचारों का मर्मांत्मक वर्णन है, उनसे जूझते उलझते पात्रों का बारीक मनोवैज्ञानिक विश्वेषण है और उसके साथ ही है पारिवारिक जीवन की विषमता, कुत्सा, बिखराव तथा टूटन से उत्पन्न हुई दर्द भरी स्थितियों का मार्मिक निरूपण।
यह उपन्यास तीन भागों में बँटी मीरा बहल और उसके परिवार-मि.बहल, दो पुत्री, शान्ता और शशि और पुत्र विनोद के क्रमिक ह्रास की कहानी है। उसी में गुंथा हुआ है हिप्पी का वहां आकर उसके साथ रहने का किस्सा, पहले शान्ता का अपनी अम्मी पर अपने किशोर पति सतीश पर डोरे डालने का लाँछन और उसके बाद शशि का भी उन पर उससे उसका हिप्पी छीनने की कोशिश का आरोप, नशीले पदार्थों के सेवन से शाशि और विनोद का वैयक्तिक पतन, कलाकार अंकल का मीरा के नग्नचित्र व्यवस्था-अव्यवस्था का विस्तृत ब्यौरा। कहानी का फलक बहुत बड़ा है। लेकिन सब कुछ मीरा बहल की ऊबी हुई, नीरस जिन्दगी से इतनी कुशलता से जोड़ा गया है, इतनी निपुणता से बताया गया है कि कुछ भी असंगत, असम्बद्ध अप्रासंगिक या ऊपर से थोपा हुआ नहीं लगता। और पाठक एक बार किताब शुरू के बाद पूरी खत्म करने से पहले रख ही नहीं पाता। उसकी स्वाभाविक कौतुहलता लगातार बनी रहती है। लेकिन खत्म करने के साथ बेचैनी खत्म नहीं हो जाती, बल्कि और बढ़ जाती है। क्योंकि अब वह उन सब मुद्दों के बारे में जो लेखक ने कहानी के दौरान उठाए, कुछ सोचने लग जाता है। वे समस्याएँ उसे अपनी निजी समस्याएँ लगती हैं क्योंकि कहानी के पात्रों से उसका गहरा तादात्म्य हो जाता है। मीरा बहल सिर्फ इस उपन्यास की ही नायिका नहीं है वह विश्व के किसी भी कोने में किसी भी परिवार में मिल सकती है ठीक उसी तरह जैसे चार्ल्स फ्लोबैर् की एमा बॉवेरी। जो प्रश्न उन्होंने उठाए हैं-आत्मजन्य भय ईर्ष्या, अकेलापन, नशा सेवन पुरुष का अहं, स्त्री के अचानक अस्मिता चेतन से पैदा हुई हताशा, निराश मनुष्य का अध्यात्म की तरफ भागना-ये सभी आधुनिक युग की विश्वव्यापी समस्याएँ हैं और विश्व साहित्य में निरुपित हुई हैं, हो रही हैं। हिप्पियों का किस्सा भी जब यह उपन्यास पंजाबी में छपा था इतना पुराना नहीं हुआ था।
उपन्यास के दूसरे और तीसरे भाग में कर्त्तार सिंह दुग्गल सामाजिक राजनीतिक नैतिक और सांस्कृतिक जीवन के विषम संघर्ष और मूल्य-मर्यादाओं का उद्घाटन करते हैं, खास तौर से 1975-76 में देश में लागू आपातकालीन स्थिति के दौरान। यूँ तो पहला भाग भी इन टिप्पणियों से अछूता नहीं है लेकिन वह पूरी तरह समर्पित है मीरा की ‘‘अभूतपूर्व सुन्दरता और ‘‘सुघड़ता’’ के प्रति, उसके उस दर्द की व्याख्या के प्रति जो कोई दूसरा नहीं समझ पाता। लेखक का यह दस्तावेज सब कुछ दर्ज करता है-भावना के स्तर पर परित्यक्त औरत का दर्द, सुख की खोज में उसकी हताश दौड़ नौजवानों का जीवन प्रति, अपनी संस्कृति के प्रति मोह-भंग विरक्ति विद्यार्थियों का आक्रामी व्यवहार, विश्वविद्यालयों में आए दिन झगड़े, हड़ताल हमारी शिक्षा प्रणाली समाज में बढ़ती अराजकता, अनुशासनहीनता, असुरक्षा, अविश्वास, आपसी सम्बन्धों में व्यावसायिकता, और उससे पैदा मूल्य-हीनता, विघटन, लोक सभा की बैठक, जेल की हालत, पुलिस का नागरिकों पर अत्याचार, स्त्रियों पर कुचेष्टा, ग्रंथी की बेईमानी, तस्करी, चोर बाजारी, घुसपैठ, सी.आई.ए., जबरन नसबंदी, व्याभिचार इत्यादि। उनकी बेधड़क लेखनी सब पर आघात करती चलती है, कभी हिप्पी की खरी टिप्पणियों के द्वारा, कभी किसी के पत्र या व्यक्तिगत डायरी के एक पृष्ठ के रूप में। उसकी पैनी निगाह से कुछ बच नहीं पाता।
विश्व में साहित्यिक विचारधारा का अग्रदूत फ्रांस माना जाता रहा है। वहाँ समय-समय पर, खास तौर से इसी शती में, शिल्प में कथ्य में तरह तरह के प्रयोग होते रहे हैं। विश्व भर के साहित्यकार अपनी रुचि के अनुसार उन्हें आजमाते, अपनाते त्यागते रहे हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद फ्रांसीसी लेखकों पर अमेरिकी लेखकों का कुछ प्रभाव दिखता है। लेकिन कुछ ही समय के लिए फिर पात्रों के मनोवैज्ञानिक चित्रण में, उनके मानसिक क्रिया-प्रतिक्रिया के अन्वेषण में तो वह हमेशा आगे ही रहा है, 18वीं शती से अब तक 1980 के प्रारम्भिक सालों में बहुत से फ्रांसीसी लेखकों का रुझान प्रयोग छोड़कर सदियों पुरानी पारम्परिक कथा कहने की कला की तरह हुआ उनमें विशेष रूप से मौरिस धुइयों मिशैल देओं, मिशैल तूरनियर, ओंरी थ्रोया द’ औरमेसौं, रोजे घ्रोनियर, ल क्लैज़ेंओ का नाम लिया जा सकता है। ये सब बहुत लोकप्रिय लेखक हैं। दुग्ग्ल साहब स्पष्ट रुप से इसी धारणा के अनुयायी हैं-सीधी कथा, महत्त्वपूर्ण कथ्य और सूक्ष्म मनोविश्लेषण। उनके लिए साहित्य किस्सागोसाई है तो कला भी परम आनन्द है तो सामजिक चेतना जगाने का एक समर्थ साधन भी। वे एक यथार्थ वादी प्रगतिशील लेखक माने जाते हैं। उनके लिए यथार्थवाद शिल्प से ज्यादा विचारधारा है, जीवन दृष्टि है। उनका यथार्थवाद ज़ोला का प्रकृतिवाद नहीं, वह सार्थ और कामू का सामाजिक यथार्थवाद है। आशावादी मानववाद है जो शब्दों के माध्यम से रचनात्मक रूप में मनुष्य की सम्मानजनक अस्मिता की चिंता, उसके बेहतर जीवन और उज्ज्वल भविष्य के प्रश्नों से जुड़ा हुआ है। फ्लौवैर की तरह उनका विश्वास है कि ‘‘प्रगतिशील साहित्य’’ वह है जिसमें प्रतिदिन के साधारण जीवन को विकासोन्मुख दिखाया जाये, जिसमें जीवन की स्वस्थ भावना का चित्रण हो, जीवन के स्वस्थ मूल्यों को उभारा जाये, लूट-खसूट, गन्दगी, अन्धविश्वास अज्ञानता, भूख और बीमारियों के प्रति घृणा पैदा की जाए।’’
जल की प्यास न जाए बहुत सुन्दर उपन्यास है। इसमें उठाई गई समस्याएँ पाठक को झकझोर देती हैं, लेकिन यह भी विश्वास दिलाती हैं कि जीवन में आस है, निराश होने की आवश्यकता नहीं। मीरा भीड़ में शाशि को खो देती है, फिर उसी भीड़ में पा भी लेती है-वीना के रूप में। जल बड़ा गहरा और अनेकार्थक प्रतीक है, लेखक के अपने शब्दों में सिर्फ ‘पाश्चात्य जीवनधारा’ का। मेरे लिए यह मीरा की अस्तित्व खोज, किसी हद तक उसकी आत्मरति का चरम बिन्दु है, मि. बहल के अहं की जड़ है, शशि की मंजिल और विनोद का नशा है, शान्ता का शुब्हा है। और अगर दूसरी तरफ से देखें तो यही जल सचेत समाज के बौद्धिक संघर्ष का प्रतीक है और प्रेरणा भी, मनुष्य की कहीं दबी हुई आध्यात्मिक आवश्यकता का स्रोत है। अपने आप में साध्य है और साधन भी। प्यासे की प्यास बुझती नहीं। वो पीता है, फिर और माँगता है। यही आनन्द है इस कवि का।
नयी दिल्ली
24 अगस्त, 1994
शरद चन्द्रा
Additional information
Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 1996 |
Pulisher |
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