Description
किसी और बहाने से
अरुणाभ सौरभ मिथिला के समृद्ध नैतिक भूगोल से, विद्यापति, रेणु और नागार्जुन की शस्यशामला भूमि से उभरे ऐसे समधीत युवा कवि हैं जिनका अन्त:पाठीय संवाद जातीय स्मृतियों से उतना ही गहरा है जितना आधुनिक विमर्शों से! उनकी ज्यादातर कविताएँ संवेदित संवाद और मननशील एकालाप की कविताएँ हैं जिनकी नैतिक ऊर्जस्विता मर्मस्पर्शी हैं। आद्य नायिका दीदारगंज की यक्षिणी और चन्द्र गंधर्व की अप्सरा से लेकर वास्कोडिगामा, फाह्यान, ह्वेनशांग, वाराहमिहिर और चार्वाक तक गैलेलियो, न्यूटन, आर्कमडीज से लेकर ‘चाय बगान की औरत और घर की ‘मामी तक, सीबू लोहार से लेकर कहीं और नौकरी कर रही पत्नी/ प्रेमिका तक… सौरभ का संसार बहुत बड़ा है और इस संसार के एक-एक किरदार से इनकी बातचीत इतनी अन्तरंग है कि कविताएँ पढ़ते हुए लगातार एक जोड़ा सतत अन्वेषी, संवेदनशील आँखें साथ चलती नजर आती हैं, ऐसी सोचती हुई-सी पानीदार आँखें जिनमें जीवन-जगत के एक-एक कतरे का दुख समझने/ बाँटने का उमगन है और रुककर सबकी बात सुनने का धीरज!
‘मीरा टॉकीज के भोले संसार से लेकर मॉल और मोबाइल जगत की जितनी नृशंसताओं तक जितने फेरबदल विस्थापित युवा झेल रहे हैं उसको करीब से जाँचती-परखती ये कविताएँ मुक्तिबोध के ‘अंधेरे में’, ‘राग यमन’ की उदासी से फैलती कविताएँ हैं, पर इन्होंने आदमीयत में अपनी आस्था नहीं छोड़ी और ‘इतिहास पुरुष’ से टकराते हुए ये यही कहते हैं—
”पर प्रेतों की आवाज़
इंसानों से ऊँची
कभी हो ही नहीं सकती।‘’
जो बीत गया, उसकी अनुगूँजें सँभालते हुए, उससे सबक लेते हुए चलना हमें आता ही है। टटोलने से ही नई राह निकलेगी और कविता एक टॉर्च या सर्चलाइट की लकीर की तरह इस नैतिक कुहेलिका से निकालने में मदद करेगी जरूर!
— अनामिका
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