Kurukshetra

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Kurukshetra

Kurukshetra

175.00 135.00

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Author: Ramdhari Singh Dinkar

Availability: 5 in stock

Pages: 120

Year: 2023

Binding: Hardbound

ISBN: 9788170281863

Language: Hindi

Publisher: Rajpal and Sons

Description

कुरुक्षेत्र

युद्ध की समस्या मनुष्य की सारी समस्याओं की जड़ है। युद्ध निन्दित और क्रूर कर्म है; किन्तु उसका दायित्व किस पर होना चाहिए ? उस पर, जो अनीतियों का जाल बिछाकर प्रतिकार को आमंत्रण देता है ? या उस पर, जो जाल को छिन्न-भिन्न कर देने के लिए आतुर रहता है ?… ये ही कुछ मोटी बातें हैं जिन पर सोचते-सोचते यह काव्य पूरा हो गया।

दिनकर

प्रथम सर्ग

वह कौन रोता है वहाँ–

इतिहास के अध्याय पर,

जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहू का मोल है

प्रत्यय किसी बूढ़े, कुटिल नीतिज्ञ के व्याहार का;

जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है;

जो आप तो लड़ता नहीं,

कटवा किशोरों को मगर,

आश्वस्त होकर सोचता,

 

शोणित बहा, लेकिन, गयी बच लाज सारे देश की ?

और तब सम्मान से जाते गिने

नाम उनके, देश-मुख की लालिमा

है बची जिनके लुटे सिन्दूर से;

देश की इज्जत बचाने के लिए

या चढ़ा जिनने दिये निज लाल हैं।

 

ईश जानें, देश का लज्जा विषय

तत्त्व है कोई कि केवल आवरण

उस हलाहल-सी कुटिल द्रोहाग्नि का

जो कि जलती आ रही चिरकाल से

स्वार्थ-लोलुप सभ्यता के अग्रणी

नायकों के पेट में जठराग्नि-सी।

 

विश्व-मानव के हृदय निर्द्वेष में

मूल हो सकता नहीं द्रोहाग्नि का;

चाहता लड़ना नहीं समुदाय है,

फैलतीं लपटें विषैली व्यक्तियों की साँस से।

हर युद्ध के पहले द्विधा लड़ती उबलते क्रोध से,

हर युद्ध के पहले मनुज है सोचता, क्या शस्त्र ही–

उपचार एक अमोघ है

अन्याय का, अपकर्ष का, विष का, गरलमय द्रोह का।

 

लड़ना उसे पड़ता मगर।

औ’ जीतने के बाद भी,

रणभूमि में वह देखता है सत्य को रोता हुआ;

वह सत्य, है जो रो रहा इतिहास के अध्याय में

विजयी पुरुष के नाम पर कीचड़ नयन का डालता।

 

उस सत्य के आघात से

हैं झनझना उठती शिराएँ प्राण की असहाय-सी,

सहसा विपंची पर लगे कोई अपरिचित हाथ ज्यों।

वह तिलमिला उठता, मगर,

है जानता इस चोट का उत्तर न उसके पास है।

 

सहसा हृदय को तोड़कर

कढ़ती प्रतिध्वनि प्राणगत अनिवार सत्याघात की–

‘नर का बहाया रक्त, हे भगवान ! मैंने क्या किया ?’

लेकिन, मनुज के प्राण, शायद, पत्थरों के हैं बने।

इस दंश का दुख भूल कर

होता समर-आरूढ़ फिर;

फिर मारता, मरता,

विजय पाकर बहाता अश्रु है।

 

यों ही, बहुत पहले कभी कुरुभूमि में

नर-मेघ की लीला हुई जब पूर्ण थी,

पीकर लहू जब आदमी के वक्ष का

वज्रांग पाण्डव भीम का मन हो चुका परिशान्त था।

 

और जब व्रत-मुक्त-केशी द्रौपदी,

मानवी अथवा ज्वलित, जाग्रत शिखा प्रतिशोध की

दाँत अपने पीस अन्तिम क्रोध से,

आदमी के गर्म लोहू से चुपड़

रक्त-वेणी कर चुकी थी केश की,

केश जो तेरह बरस से थे खुले।

 

और जब पविकाय पाण्डव भीम ने

द्रोण-सुत के सीस की मणि छीन कर

हाथ में रख दी प्रिया के मग्न हो

पाँच नन्हें बालकों के मूल्य-सी।

 

कौरवों का श्राद्ध करने के लिए

या कि रोने को चिता के सामने,

शेष जब था रह गया कोई नहीं

एक वृद्धा, एक अन्धे के सिवा।

 

और जब,

तीव्र हर्ष-निनाद उठ कर पाण्डवों के शिविर से

घूमता फिरता गहन कुरुक्षेत्र की मृतभूमि में,

लड़खड़ाता-सा हवा पर एक स्वर निस्सार-सा,

लौट आता था भटक कर पाण्डवों के पास ही,

जीवितों के कान पर मरता हुआ,

और उन पर व्यंग्य-सा करता हुआ–

‘देख लो, बाहर महा सुनसान है

सालता जिनका हृदय मैं, लोग वे सब जा चुके।’

 

हर्ष के स्वर में छिपा जो व्यंग्य है,

कौन सुन समझे उसे ? सब लोग तो

अर्द्ध-मृत-से हो रहे आनन्द से;

जय-सुरा की सनसनी से चेतना निस्पन्द है।

 

किन्तु, इस उल्लास-जड़ समुदाय में

एक ऐसा भी पुरुष है, जो विकल

बोलता कुछ भी नहीं, पर, रो रहा

मग्न चिन्तालीन अपने-आप में।

‘‘सत्य ही तो, जा चुके सब लोग हैं

दूर ईर्ष्या-द्वेष, हाहाकार से।

मर गये जो, वे नहीं सुनते इसे;

हर्ष का स्वर जीवितों का व्यंग्य है।’’

 

स्वप्न-सा देखा, सुयोधन कह रहा–

‘‘ओ युधिष्ठिर, सिन्धु के हम पार हैं;

तुम चिढ़ाने के लिए जो कुछ कहो,

किन्तु, कोई बात हम सुनते नहीं।

 

‘‘हम वहाँ पर हैं, महाभारत जहाँ

दीखता है स्वप्न अन्तःशून्य-सा,

जो घटित-सा तो कभी लगता, मगर,

अर्थ जिसका अब न कोई याद है।

 

‘‘आ गये हम पार, तुम उस पार हो;

यह पराजय या कि जय किसकी हुई ?

व्यंग्य, पश्चात्ताप, अन्तर्दाह का

अब विजय-उपहार भोगो चैन से।’’

 

हर्ष का स्वर घूमता निस्सार-सा

लड़खड़ाता मर रहा कुरुक्षेत्र में,

औ’ युधिष्ठिर सुन रहे अव्यक्त-सा

एक रव मन का कि व्यापक शून्य का।

 

‘रक्त से सिंच कर समर की मेदिनी

हो गयी है लाल नीचे कोस-भर,

और ऊपर रक्त की खर धार में

तैरते हैं अंग रथ, गज, बाजि के।

 

‘किन्तु, इस विध्वंस के उपरान्त भी

शेष क्या है ? व्यंग्य ही तो भाग्य का ?

चाहता था प्राप्त मैं करना जिसे

तत्त्व वह करगत हुआ या उड़ गया ?

‘सत्य ही तो, मुष्टिगत करना जिसे

चाहता था, शत्रुओं के साथ ही

उड़ गये वे तत्त्व, मेरे हाथ में

व्यंग्य, पश्चात्ताप केवल छोड़कर।

 

‘यह महाभारत वृथा, निष्फल हुआ,

उफ ! ज्वलित कितना गरलमय व्यंग्य है ?

पाँच ही असहिष्णु नर के द्वेष से

हो गया संहार पूरे देश का।

 

‘द्रौपदी हो दिंव्य-वस्त्रालंकृता,

और हम भोगें अहम्मय राज्य यह,

पुत्र-पति-हीना इसी से तो हुई

कोटि माताएँ, करोड़ों नारियाँ !

 

‘रक्त से छाने हुए इस राज्य को

वज्र हो कैसे सकूँगा भोग मैं ?

आदमी के खून में यह है सना

और है इसमें लहू अभिमन्यु का’।

 

वज्र-सा कुछ टूटकर स्मृति से गिरा,

दब गये कौन्तेय दुर्वह भार से,

दब गयी वह बुद्धि जो अब तक रही

खोजती कुछ तत्त्व रण के भस्म में।

 

भर गया ऐसा हृदय दुख-दर्द-से,

फेन या बुदबुद नहीं उसमें उठा।

खींचकर उच्छ्वास बोले सिर्फ वे

‘पार्थ, मैं जाता पितामह पास हूँ।’

 

और हर्ष-निनाद अन्तःशून्य-सा

लड़खड़ाता मर रहा था वायु में।

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Authors

Binding

Hardbound

ISBN

Language

Hindi

Pages

Publishing Year

2023

Pulisher

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