Shahzada Darashikoh – Bhag 2
Shahzada Darashikoh – Bhag 2
₹500.00 ₹499.00
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Author: Shyamal Gangopadhyay
Pages: 556
Year: 2024
Binding: Hardbound
ISBN: 9788126007448
Language: Hindi
Publisher: Sahitya Academy
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Description
शाहजादा दाराशिकोह – खण्ड 2
‘‘आप जानते हैं कवि चन्द्रभान ! जब मैं सत्य को अपने सीने में महसूस करता हूँ तब समझ लेता हूँ कि हिन्दू और मुसलमान में कोई फर्क नहीं है। मैं जानता हूँ मेरी यह बात जामा मस्जिद के उलेमाओं के ह्रदय को चोट पहुँचाएगी, इसलिए यह बात हमारे बीच ही रहे, मैं यही चाहता हूँ।…
‘‘ईश्वर, इन्द्रिय, ज्योति, ग्रह, नक्षत्र के मामलों में हिन्दू मुसलमानों की सोच में विशेष कोई अन्तर नहीं है। कुरान में-नील नदी की दो शाखाएँ बताई गई हैं बाहर-उल-आवयाद और बाहर-उल-आसवाद। एक श्वेत नदी है और दूसरी नीली नदी। यह खार्तुम में आकर मिल गई है। इस मुहाने का नाम है मजमायाल-बाहरायेन। मुझे लगता है कवि की हिन्दू और मुसलमान का मुहाना है ये हिन्दोस्तान। मेरी नजरों में तो हिन्दोस्तान ही हिन्दू-मुसलमान का मजमायाल-बाहरायेन है।…
‘‘वेदों में कुरान की विशद व्याख्या है कवि। कुरान में जिस गुप्त ग्रंथ का उल्लेख है, वह ग्रन्थ है वेद। मेरा यह चिन्तन धर्मान्ध मुसलमान सहन न करेंगे। वे मुझे दोषी ठहराएँगे। लेकिन मुझे अगर पता चलता है कि एक काफिर के पाप के कीचड़ में डूबे रहने पर भी अगर उसकी आवाज में तौहीद है, एकेश्वरवाद का संगीत है तो मैं उसके पास जरूर जाऊँगा। उसका गाना सुनूँगा और इस बात के लिए कृतज्ञ होऊँगा। हिन्दू और मुसलमान दोनों के धर्म, अल्लाह के पास जाने का एक ही रास्ता बताते हैं। दोनों धर्म कहते हैं कि ईश्वर एक है। उससे बड़ा कोई नहीं।’’
महाविश्व का महानिनाद
अकबर की मृत्यु के बाद उनके उदार आदर्श, उनके कार्यक्रम सब अतीत बन गए। मुसलमान राजशक्ति ने हिन्दोस्तान में मुसलमानों को विशेष अधिकार दिए थे। उसके साथ धर्म के तौर पर इस्लाम जुड़ जाने से, मुसलमानों की शक्ति का प्रतीक इस्लाम, अपने पाँव पर खड़ा हो गया। अकबर का उदार आदर्श, हिन्दू, मुसलमान, ईसाई….सभी धर्मों के ऊपर था। उसी आदर्श की रक्षा करने की बुद्धि जहाँगीर या शाहजहाँ जैसे साधाराण बुद्धिवाले इनसानों में नहीं थी।
उन्हीं के वंश में एक दिखाई दिए। उन्हीं के प्रपौत्र-शाहजहाँ के पुत्र शाहज़ादा दाराशिकोह।
उनका जीवन जितना रोमांटिक था, उतना ही त्रासदीपूर्ण। रसमय होते हुए भी दर्द से टपकता हुआ जीवन। इतिहास में ऐसे चरित्र दुर्लभ ही होते हैं। उनके पास रूप था। लेकिन उनकी भावुकता में शायद उन्हें जीवन की अन्तिम दशा तक खींचकर पहुँचा दिया था। दाराशिकोह युद्ध, प्रेम, षड्यन्त्र के बीच तैरते हुए मानव धर्म को ढूँढ़ते रहे।
उन्होंने समस्त मानव समाज को प्रेम के बन्धन में बाँधकर एक अनोखा समाज बनाने का सपना देखा था। लेकिन उनके पटवारियों वाली कूटबुद्धि न होने के कारण वे जागतिक मामले में परास्त हो गए। इसीलिए हमें आज उनसे सहानुभूति है।….हम उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
प्राचीन इतिहास में उन्हें धर्मद्रोही घोषित किया था। अनभिज्ञ जनसाधाराण के भीतर, पुरोहितों के भीतर प्रचलित धर्म के विश्वास पर तर्क, युक्ति या उदारता जैसी चीजों का कोई स्थान नहीं है। ये लोग दूसरों के धार्मिक विचारों से घृणा करना सिखाते हैं। महात्मा दाराशिकोह उसी संकीर्ण साम्प्रदायिक प्रचलित धार्मिक विचार पर विश्वास नहीं करते थे।
दाराशिकोह विश्वास करते थे कि सभी धर्म मूलत: एक हैं। उचित साधना-द्वारा प्रत्येक धर्म के माध्यम से मुक्ति मिल सकती है। मुक्ति के लिए सिर्फ़ चाहिए सत्यनिष्ठा, चित्त-शुद्धि और जन-सेवा।
औरंगजेब की धर्मान्धता के दबाव में आकर लोग दाराशिकोह को भूलने लग गए। जबकि कुरुक्षेत्र के बाद उन्हीं की वजह से हिन्दोस्तान में महायुद्ध, इतिहास का सबसे बड़ा ग्रह युद्ध, भाइयों में अन्तर्कलह हुआ और मारकाट हुई। हिन्दोस्तान के इतिहास में अनेक घटनाएँ घटीं, अनेक राज्यों का उत्थान-पतन हुआ। लेकिन बदनसीबी दारा इन सब घटनाओं से बहुत पीछे छूट गये थे। इतिहास बड़ी-बड़ी घटनाओं को लिखता है। संस्कृति-साधना के क्षेत्र में दाराशिकोह का खामोशी से किया असामान्य कार्य और उसके परिणामों के मामले में चिरमुखर इतिहास आज गूँगा बन गया है।
दैवी अतृप्ति से दुखी दारा को उस समय के इतिहासकारों ने भी नहीं समझा और उन्हें अस्थिर चित्त इनसान कहा। धर्म के मामले में दारा के उदार विचार हिन्दोस्तान के लिए नए नहीं। उनसे पहले भी बहुत से सूफ़ी सन्तों ने ऐसी ही बातें कहीं थी। लेकिन समसाययिक मुसलमानों का सारा आक्रोश जा पड़े बेचारे दाराशिकोह पर। अन्त में, उन्होंने एक निरीह, उदार इनसान का सिर क़लम करवाकर ही दम लिया।
असाधारण मन और विचारधारा के इस मुग़ल शाहज़ादे के प्रति मुग़लकालीन हिन्दोस्तान के इतिहासकारों ने सहानुभूति नहीं दिखाई और यही कारण है कि उनकी असली तस्वीर राजनीति के विपरीत स्रोत्र के भँवर में पड़कर विकृत हो गई। सत्य की तालाश में शाहज़ादा दारा जिस सहजता से मस्जिद में चले जाते थे उसी तरह से नि:संकोच मंदिर में भी जाते थे। ईश्वर में समा जाने के लिए प्रेमी साधक ने मंदिर-मस्जिद में कभी कोई भेदभाव नहीं किया। मैंने सिर्फ़ वही वास्तविक चित्र प्रस्तुत करने का प्रयास मात्र किया है और जब विचित्र करने बैठा, तब उस समय के हिन्दोस्तान को देखा उस समय के लोग कई शताब्दियों से धूल-मिट्टी के नीचे दबे पड़े हैं। उसी धूल-मिट्टी को हटाने पर क्षोभ, दुख, ईर्ष्या, अभिमान, प्यार, घृणा….सब कुछ दिखाई पड़ने लगा। यथासम्भव मैंने उस समय की छवियाँ आँकने का प्रयास किया है।
– श्यामल गंगोपाध्याय
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Binding | Hardbound |
Language | Hindi |
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Publishing Year | 2024 |
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