Shahzada Darashikoh – Bhag 1

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Shahzada Darashikoh – Bhag 1

Shahzada Darashikoh – Bhag 1

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500.00 499.00

Author: Shyamal Gangopadhyay

Availability: 3 in stock

Pages: 547

Year: 2024

Binding: Hardbound

ISBN: 9788126007448

Language: Hindi

Publisher: Sahitya Academy

Description

शाहजादा दाराशिकोह – खण्ड 1

ओ महान दिग्दर्शक

ऐसा उपन्यास पहले कभी लिखा नहीं था। सोचा तो था, लेकिन साहस नहीं बटोर पाया। किनारे खड़े-खड़े डरता रहा। इतना विराट। इतना जटिल। मनुष्य का मन। इतिहास के हर मोड़ पर। देश का धर्म। देश के लोग।

गहरा और अथाह समुद्र-पानी-ही-पानी।

साप्ताहिक ‘वर्तमान’ के श्रीमान अशोक बसु ने तो मुझे लगभग धकेलकर लहरों में फेंक दिया था। उनका समर्थन कर रही थीं श्रीमती अनुभा कर।

डूब न जाऊँ इस डर से मैं तैरने लगा, जिससे कि किनारे पहुँच सकूँ। किनारे पहुँचा या नहीं, यह तो पाठकगण ही बताएँगे। मुझे इस गहरे पानी में गिराने के लिए आज मैं अशोक का ऋणी हूँ। ऋणी तो मैं अनुभा का भी हूँ।

बीच-बीच में तथ्य जुटाते हुए। हौसला बढ़ाकर सहायता की श्रीमती शहाना बन्द्योपाध्याय और श्रीमती छन्दवानी मुखोपाध्याय ने। श्रीमती नन्दिनी गंगोपाध्याय इतिहास के तथ्यपूर्ण रास्तों पर चलने में सहायता करती रहीं। श्रीमती हेमन्ती गंगोपाध्याय ने भी राह सुझाई। ख़ासतौर से लोर-चन्द्राणी आख्यान के प्रसंग में।

मैं सर्वश्री कालिकारंजन कानूनगो, अमियकुमार मजूमदार, क्षितिमोहन सेन, राजेश्वर मित्र, भाई गिरीशचन्द्र सेन, गौतम भद्र, शेखर चट्टोपाध्याय और यदुनाथ सरकार को पढ़-पढ़कर राह ढूढ़ता रहा। ख़ुद अबुलफ़ज़ल भी मेरे दिग्दर्शक रहे। टेवरनियर और बर्नियर भी मेरे पथ-प्रदर्शक थे। शुरू-शुरू मैं औरंगज़ेब को समझाने के लिए श्रीमती शान्ता बन्द्योपाध्याय ने स्वयं बहुत अध्ययन किया था। उन्होंने सारा सार-तत्त्व मेरे सामने लाकर रख दिया था। सदाशयी कथाकार किन्नर राय ने पूरी सामग्री पढ़ लेने के बाद ही इसे छपाने के लिए आगे बढ़ाया। शब्दों के सही प्रयोग और विषयान्तर, इन सब पर उनकी पैनी नज़र थी। उनके ऋण की बात मैं कैसे न स्वीकार करूँ ?

शाहज़ादा दाराशिकोह हिन्दू-मुसलमानों के धार्मिक चिन्तन के मध्य मिलनबिन्दु ढूँढ़ते-ढ़ूँढ़ते अपने दौर से बहुत ज़्यादा आगे निकल गये थे। इसीलिए वह हिन्दोस्तान के इतिहास में ‘काला गुलाब’ हैं। करुणा, सौन्दर्य और काल के इतिहास के साथ वह गुलाब उलझकर मुरझा गया। युग-युगान्तर बाद भी परिवर्तन हिन्दोस्तान उसे बार-बार ढूँढ़ निकालेगा। मैं तो उसी इतिहास पुरुष के रास्ते पर एक खानाबदोश  मुसाफ़िर भर हूँ। मैं उसकी गौरेया हूँ। वे आधुनिक हिन्दोस्तान के राजा राममोहन राय, रवीन्द्रनाथ, विवेकानन्द, महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरू के पथ-प्रदर्शक थे।

हिन्दोस्तान के भावी बादशाह शाहजदाहा मोहम्मद दाराशिकोह एक पक्के मुसलमान थे। इस्लाम पर उनका अगाध विश्वास था, फिर भी उन्होंने बार-बार कहा था- ‘‘सत्य किसी एक धर्म की सम्पत्ति नहीं है। ईश्वर तक पहुँचने के बहुत से रास्ते हैं।’’ मानवधर्मी दाराशिकोह ने ही पहली बार सभी धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन किया और मनुष्य के धर्म को ढूँढ़ निकालने का प्रयास किया। विश्व-मनीषियों के सामने उपनिषदों का ज्ञान उन्हीं के प्रयासों का परिणाम था। प्रेमी द्वारा धर्मिक दारा का हाथ पकड़कर चलता रहा था। मानवीय प्रेम में ईश्वरानुभूति एकाकार हो गई, लेकिन इस चतुर जगत में कूटकौशल के अभाव में योद्धा दारा कुछ कर न पाया।

दाराशिकोह आलौकिक सत्ता के घोर विश्वासी थे। लेकिन कट्टरता और धर्मान्धता न होने के कारण लगभग सभी उमराव उनसे नाराज़ हो गए थे। जिन राजपूतों की कभी उन्होंने जान बख़्शी थीं, उन्हीं राजपूतों ने उन्हें प्रबल उत्साह के साथ औरंगजे़ब की गिरफ़्त तक पहुँचा दिया। धर्मान्ध और सक्षम विरोधियों ने, धर्मद्रोही होने का झूठा आरोप लगाकर उन्हें मौत के मुँह तक धकेल दिया।

हिन्दोस्तान के इतिहास में ऐसा विषादग्रस्त ‘काला गुलाब’ दूसरा नहीं है। इस ‘ब्लैक प्रिंस’ ने इनसान का…..पूरी इंसानियत का भला चाहा था। वे मानव-धर्म की तालाश में थे। इतिहास में उनके जैसा उपेक्षित इनसान और कहाँ होगा ?

इतिहास के साल-महीने-तारीख़, युद्ध और अभिषेक के आयोजनों के बीच महाकाल का अकूत अंधकार फैला हुआ है- वहाँ सिर कूट डालने पर भी यह जान पाना संभव नहीं कि शाहज़ादियाँ, अमीर-उमरावों से लेकर साधारण गानेवालियों, भिखारी, क़ैदी या कवि लोग क्या कुछ सोचते-विचारते थे। वे नियति को अपना गंतव्य मान बैठे थे ? मैंने उसी सोच को, चिन्तन को फिर से जगाने का प्रयास मात्र किया है।

 – श्यामल गंगोपाध्याय

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Authors

Binding

Hardbound

ISBN

Language

Hindi

Pages

Publishing Year

2024

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