Taslima : Sangharsh Aur Sahitya

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Taslima : Sangharsh Aur Sahitya

Taslima : Sangharsh Aur Sahitya

895.00 725.00

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895.00 725.00

Author: Mohankrishna Bohara

Availability: 10 in stock

Pages: 640

Year: 2016

Binding: Hardbound

ISBN: 9789352294527

Language: Hindi

Publisher: Vani Prakashan

Description

तसलीमा संघर्ष और साहित्य

नारी की स्वतन्त्राता और पुरुष के समान उसके अधिकार के मुद्दे पर विचार करते हुए तसलीमा का सर्वोपरि आग्रह इस बात पर है कि समाज में नारी को मनुष्य के रूप में स्वीकृति मिलनी चाहिए ताकि वह एक इंसान के रूप में सम्मानित जीवन जी सके। लेकिन यह पुरुष-शासित परिवार और समाज औरत का मनुष्य होने का दर्जा एकाएक स्वीकार नहीं करता। मनुष्य होने के दर्जे से आशय है, समाज में पुरुष के समान ही औरत की हैसियत को स्वीकार करना। परिवार और समाज की दृष्टि में औरत का मातृत्व और पत्नीत्व तो स्वीकृत है और सम्मानित भी, लेकिन इन रूपों से इतर, स्वतन्त्रा व्यक्ति के रूप में उसका अस्तित्व मान्य नहीं है। उसे किसी पिता की पुत्री, पति की पत्नी या पुत्रा की माता के रूप में ही पहचाना जाता है। पिता-पति-पुत्रा के विचारों में ही पुत्री-पत्नी और माँ के विचारों का अन्तर्भाव मान लिया जाता है।

यह सोचा ही नहीं जाता कि उसके अपने स्वतन्त्रा विचार भी हो सकते हैं। प्रारम्भ में पहचान पुरुष को भी किसी पिता के पुत्रा के रूप में ही मिलती है लेकिन वयस्क होते-न-होते वह अपनी स्वतन्त्रा पहचान पा लेता है; स्वतन्त्रा यानी पिता से स्वतन्त्रा। उसके विचारों की अलग अहमियत हो जाती है, चाहे वह पढ़ा-लिखा नहीं भी है, परन्तु परिवार और समाज के दायरे में यह स्वतन्त्रा हैसियत औरत को एकाएक नसीब नहीं होती, चाहे वह पढ़ी-लिखी भी है। जिस औरत ने अपनी प्रतिभा के बल पर कोई ऊँचा पद पा लिया है, डॉक्टर-इंजीनियर, सी. ए. या सी. ई. ओ. हो गयी है, उसकी बात अलग है। उसकी तो व्यक्ति रूप में विशिष्ट पहचान भी बन जाती है और उसका सम्मान भी होने लगता है लेकिन यह औरत के रूप में औरत की पहचान नहीं है। यह तो उस पद की और उस पद में समाये पौरुष की पहचान है और उसी का सम्मान है जो उसने अपनी योग्यता से प्राप्त किया है। ऐसे अपवाद-उदाहरणों के सहारे हम यह नहीं कह सकते कि आज समाज में आम औरत का व्यक्ति रूप में अस्तित्व मान्य हो गया है।

आवश्यकता इस बात की है कि समाज में हर औरत का, साधारण से साधारण औरत का भी, स्वतन्त्रा इकाई रूप में अस्तित्व स्वीकृत हो जैसे कि साधारण से साधारण पुरुष का स्वीकृत हुआ मिलता है। पुरुष जब पुत्रा-पति-पिता के पारिवारिक दायरे से बाहर होता है, तब उसका परिचय उसके नाम और काम से दिया जाता है लेकिन औरत कभी पारिवारिक दायरे की (पुत्री-पत्नी-माँ की) पहचान से बाहर ही नहीं आ पाती है। इन सभी रूपों में उसकी पहचान पुरुष-निर्भर पहचान होती है और इससे उसकी स्वकीयता खत्म होती है। उसे पुरुष के रिश्ते से बँधकर ही जीना पड़ता है जबकि तसलीमा का आग्रह है कि औरत स्वयं अपना परिचय बनकर जीये।

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Authors

Binding

Hardbound

ISBN

Language

Hindi

Pages

Publishing Year

2016

Pulisher

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