Tat Ki Khoj

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Tat Ki Khoj

Tat Ki Khoj

95.00 75.00

In stock

95.00 75.00

Author: Harishankar Parsai

Availability: 3 in stock

Pages: 107

Year: 2009

Binding: Hardbound

ISBN: 9789350000571

Language: Hindi

Publisher: Vani Prakashan

Description

तट की खोज

एक दिन किसी विवाह के इच्छुक वर के पिता मुझे देखने आये। आशा और निराशा के बीच झूलते पिताजी तीन दिन से घर की तैयारी कर रहे थे। मकान की सफाई की गई, सजावट की गई, साथ ही मुझे भी सजाया गया। ऐसे अवसर पर घर में किसी वृद्धा का होना आवश्यक है, इसलिए मेरी एक दूर के रिश्ते की फूफी को तीन दिन के लिए इस घर में बसाया गया।

मेरी परीक्षा का दिन आया। सबेरे से घर में बड़ी हलचल मच गई। वृद्धा फूफी ने मेरा श्रृंगार किया और मुझे उन लोगों के सामने कैसे चलना चाहिए, कैसे बात करनी चाहिए, यह सब सिखाया गया। कुछ मामला ऐसा था जैसे मदारी बन्दर को नाना प्रकार के हाव भाव सिखाए, ताकि वह दर्शकों को प्रसन्न कर सके। जब वे लोग भोजन करने बैठे तो पिताजी ने यह बताते हुए कि यह पकवान मेरे ही बनाए हुए हैं, मेरी पाक विद्या की प्रशंसा की, उन्होंने टेबिलक्लाथ की ओर देखा तो उन्होंने बताया कि यह मेरी कला है। द्वार की झालरों की ओर उनकी दृष्टि गई तो उनसे तुरन्त कहा गया कि वह भी मेरी ही कला है। कोने में रखा हुआ सितार ऐसी जगह रख दिया गया कि जहाँ उनकी दृष्टि उस पर सहज पड़ जावे और उन्हें यह विदित हो जावे कि मैं गान विद्या में भी निपुण हूँ।

यह सब चलता रहा। स्वभाव से ही शांत, पिताजी बालक की तरह चंचल, और वाचाल हो गये। उनकी यह हालत देखकर मेरा मन उनके प्रति करुणा से भर गया। उनका मुख उस समय बड़ा दयनीय हो गया था। थोड़ी देर बाद वे लोग अपने एक रिश्तेदार के यहाँ चले गये। शाम को पिताजी बड़ी आशंका से उनका निर्णय सुनने के लिए वहाँ गये, जैसे विद्यार्थी परीक्षफल सुनने से डरते हैं।

भूमिका

मैं आज भी नहीं समझ पाता कि ‘तट की खोज’ बहुत साल पहले मुझसे कैसे लिखा गया। यह एक ऐसी कहानी है जिसे लघु उपन्यास कहा जाता है। मूल घटना मुझे अपने कवि मित्र ने सुनाई थी। वे काफी भावुक थे। मेरी उम्र भी तब भावुकता की थी। कुछ रूमानी भी था। तार्किक कम था। तभी तगादा लगा था ‘अमृत प्रभात’ के दीपावली विशेषांक के लिए किसी लंबी चीज़ का। जल्दी का मामला था। मित्र ने जो घटना सुनाई थी वह मेरे मन में गूँज रही थी। मेरी संवेदना कहानी की उस लड़की के प्रति गीली थी। मैंने दो रात जागकर इसे लिख डाला।

लिखकर पछताया। छपा तब और पछताया। और अब जब यह वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हो रहा है तब भी मैं पछता रहा हूँ। अब मैं इस रचना का सामना नहीं कर सकता। मेरी एक तिहाई रचनाएँ ऐसी हैं जिनका सामना करते मैं डरता हूं। बहरहाल ‘तट की खोज’ फिर से प्रकाशित होने दे रहा हूँ।

– हरिशंकर परसाई

Additional information

Authors

Binding

Hardbound

ISBN

Language

Hindi

Pages

Publishing Year

2009

Pulisher

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