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Description
वन्दे विदेह तनया
अनुक्रम
★ अनुवचन
★ महाराजश्री : एक परिचय
★ प्रथम प्रवचन
★ द्वितीय प्रवचन
★ तृतीय प्रवचन
★ चतुर्थ प्रवचन
★ पंचम प्रवचन
★ पष्ठम प्रवचन
★ सप्तम प्रवचन
★ अष्टम प्रवचन
★ नवम प्रवचन
★ साहित्य सूची
।। श्री रामः शरणं मम ।।
प्रथम प्रवचन
जनकसुता जग जननि जानकी।
अतिसय प्रिय करुनानिधान की।।
ताके जुग पद कमल मनावउँ।
जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ।।
पुनि मन बचन कर्म रघुनायक।
चरन कमल बंदउँ सब लायक।।
राजिवनयन धरें धनु सायक।
भगत बिपति भंजन सुखदायक।।
गिरा अस्थ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।
बंदउँ सीता राम पद जिन्हहिं परम प्रिय खिन्न।। 1/17/7
प्रभुश्री रामभद्र और करुणामयी, वात्सल्यमयी श्रीसीताजी की कृपा से पुनः इस वर्ष यह सुअवसर मिला है कि ‘संगीत कला मन्दिर ट्रस्ट’ तथा ‘संगीत कला मन्दिर’ के तत्वावधान में भगवत्-चरित्र की चर्चा का सुयोग बना। अभी श्री मंत्रीजी ने स्मरण दिलाया कि यह पैंतीसवाँ वर्ष है। यह तो प्रभु की बड़ी महती अनुकंपा है कि उन्होंने यह धन्यता हम सभी लोगों को प्रदान की। आप सब की उपस्थिति एवं श्रद्धा-भावना निरंतर आनंदित और उत्साहित करती ही है। इस संस्था के संस्थापक श्रीबसंतकुमारजी बिरला तथा सौजन्यमयी सरलाजी बिरला की उपस्थिति से इस भावना में और भी वृद्धि होती है। वे दोनों यहाँ उपस्थित हैं। विशेष प्रसन्नता की बात यह है कि श्रीमती सरलाजी के साथ अब डाक्टरेट की उपाधि जुड़ गई है। आइए, प्रभु के द्वारा जो यह संयोग मिला है उसका हम लोग अधिक से अधिक सदुपयोग करें।
इस बार प्रसंग चुना गया है-‘जगज्जननी सीता’। अभी आपके समक्ष जो चौपाइयाँ पढ़ी गई हैं, वे उस प्रसंग की हैं जहाँ गोस्वामीजी भक्तों की वन्दना करते हैं और सबसे अंत में श्रीसीताजी तथा भगवान राम की वंदना करते हैं। श्रीसीताजी की वंदना करते हुए उन्होंने जो पंक्तियाँ लिखीं, उनका सरल सा अर्थ है कि महाराज श्रीजनक की पुत्री, जगज्जननी और करुणानिधान श्रीराम की अतिशय प्रिया श्रीसीताजी के दोनों चरण कमलों की मैं वंदना करता हूँ जिनकी कृपा से निर्मल बुद्धि प्राप्त होती है। उसके पश्चात् श्रीराम की वंदना करते हुए कहते हैं कि मैं मन, वचन और कर्म से उन प्रभु श्रीरघुवीर की वंदना करता हूँ, जिनमें समस्त गुण-गण विद्यमान हैं, जो धनुष -बाण धारण करने वाले तथा भक्तों की विपत्ति का हरण कर उन्हें सुख देने वाले हैं। इस प्रकार इन दोनों की पृथक-पृथक वंदना करने के बाद फिर उन्होंने दोनों की संयुक्त वंदना की।
गोस्वामीजी उसे एक दार्शनिक रूप देते हुए कहते हैं कि जैसे वाणी और अर्थ ये दो अलग-अलग शब्द हैं, पर व्यक्ति यह जानता है कि दोनों में रंचमात्र भेद नहीं है। और जल और बीचि (जल में उठने वाली तरंगें) भले ही शब्द के रूप में भिन्न हों, पर उन दोनों में भी रंचमात्र कोई भेद नहीं है। इसी प्रकार से भिन्न प्रतीत होते हुए भी श्रीसीताजी और प्रभु वस्तुतः अभिन्न हैं। जिन्हें दीनजन अत्यन्त प्रिय हैं, मैं उन श्रीसीतारामजी के चरणों में प्रमाण करता हूँ, वन्दना की इन पंक्तियों में दार्शनिक पक्ष है, भावनात्मक पक्ष है तथा चरित्र का पक्ष तो है ही।
इन पंक्तियों में वर्णन-क्रम की दृष्टि से एक क्रमभंगता है। इसमें प्रारम्भ करते हुए कहा गया कि वे महाराज श्रीजनक की पुत्री हैं और उसके तुरंत बाद ही दूसरा शब्द कह दिया कि वे सारे संसार की जननी हैं। क्रम की दृष्टि से इससें अटपटापन लगता है। क्योंकि संसार में भी जैसा दिखाई देता है कि किसी स्त्री का परिचय जब दिया जाता है, तो प्रथम कन्यारूप में किसकी पुत्री है फिर विवाह के पश्चात्-किसकी पत्नी है और पुत्र उत्पन्न हो जाने पर उस पुत्र का नाम लेकर उसकी माँ के रूप में परिचय दिया जाता है। गोस्वामीजी ने पार्वतीजी का परिचय देने में इसी क्रम का निर्वाह किया। उन्होंने कहा-
जय जय गिरिबर राज किसोरी।
आप महाराज हिमान्चल की पुत्री हैं। और उसके साथ साथ दूसरा वाक्य है-
जय महेस मुख चंद चकोरी।। 1/234/5
‘आप भगवान शंकर के मुख-चन्द्र की चकोरी हैं। और अगला है-
जय गजबदन षड़ानन माता। 1/234/6
आप गणेश और स्वामी कार्तिक की माता हैं। तो क्रम से यही उपयुक्त प्रतीत होता है। पर जब गोस्वामीजी ने श्री सीताजी की वंदना की तो क्रम उलट दिया। उन्होंने कहा कि जो महाराज श्रीजनक की पुत्री हैं, तथा संसार की जननी हैं और जो करुणानिधान की अतिशय प्रिया हैं, उनकी मैं वंदना करता हूँ। किन्तु इस क्रम परिवर्तन के पीछे तुलसीदासजी की जो दार्शनिक पृष्ठभूमि है, आइए उस पर एक दृष्टि डाल लें।
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2014 |
Pulisher |
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