Ramkatha Mandakini

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Ramkatha Mandakini

Ramkatha Mandakini

190.00 189.00

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Author: Sriramkinkar Ji Maharaj

Availability: 6 in stock

Pages: 224

Year: 2014

Binding: Paperback

ISBN: 0

Language: Hindi

Publisher: Ramayanam Trust

Description

रामकथा मंदाकिनी

प्रथम प्रवचन

भगवान् श्रीरामभद्र की महती अनुकम्पा से पुन: इस वर्ष यह संयोग मिला है, संगीत कला मन्दिर ट्रस्ट और संगीत कला मन्दिर के तत्त्वाधान में भगवान श्रीराम की मंगलमयी गाथा की कुछ चर्चा की जा सके। यह परम्परा उन्तीस वर्षों से चलती आ रही है और आज तीसवें वर्ष में प्रवेश कर रही है। सचमुच कथा की यह अनवरत चलनेवाली परम्परा प्रभु की कृपा और आप सबकी श्रद्धा -भावना के संयोग के बिना संभव नहीं थी। इस संदर्भ में मुझे पचीसवें वर्ष की भी विस्मृति नहीं होती है। उस समय ब्रह्मलीन श्रीघनश्यामदासजी बिरला यहाँ आए थे और उन्होंने बड़े भावपूर्ण उद्गार श्रीरामकथा के सन्दर्भ में व्यक्त किए थे और आज हम तीसवें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं तो कथा के प्रति उनके उद्गारों की स्मृति आना स्वाभाविक है। इससे बढ़ करके कोई प्रसन्नता और सन्तोष की बात नहीं हो सकती कि उनके द्वारा प्रारम्भ की गयी परम्परा को उनके सुपुत्र श्रीबसन्तकुमारीजी बिरला और सौभाग्यवती सरलाजी के द्वारा आगे बढ़ाया जा रहा है। और अब आइए ! प्रभु के प्रति नमन करते हुए इस बार जो कथा प्रसंग चुना गया है उस पर एक दृष्टि डालने की चेष्टा करें। इस बार कथा के प्रसंग में आन्तरिक चित्रकूट के निर्माण के सूत्र दिए गये हैं। मानस के प्रारम्भ में गोस्वामी जी ने यह कहा कि-

रामकथा मन्दाकिनी चित्रकूट चित चारु।

तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु।। 1/31/0

सबसे पहले इस दोहे के सरल अर्थ पर एक बार दृष्टि डाल लें तथा उसके पश्चात् क्रमश: उसके शब्दों पर विचार करें। इस दोहे में रामकथा की तुलना मन्दाकिनी और चित्त की श्रीचित्रकूट के वन से की गयी है। इसमें गोस्वामीजी जी कहते हैं कि भगवान श्रीराम की कथा ही मन्दाकिनी है और हमारा जो अचल चित्त है वही चित्रकूट है। या यों कह लीजिए कि जिस समय हमारा चित्त अचल होता है उस समय हमारे अन्त:करण में चित्रकूट की सृष्टि हो जाती है और जैसे चित्रकूट में वन है इसी प्रकार से भगवत्प्रेम ही वन है। पहले कथा शब्द में मैं आपका ध्यान आकृष्ट करूँगा। कथा शब्द का सरल-सा अर्थ है जो ‘कही जाय’,- वह कथा है। पर कथा शब्द जितने विस्तार से और जितने रूपों में श्रीरामचरितमानस में दृष्टि डाली गयी है अगर उसको दृष्टिगत रखकर हम विचार करें तो कथा शब्द की गहराई तथा महानता पर हमारा ध्यान जाएगा। पहला सूत्र तो यह है कि कथा सेतु है। जैसे नदी के दो किनारों के बीच में यदि सेतु हो तो दोनों किनारे थोड़ी दूर रहकर भी मिले हुए होते हैं। इसी तरह से भूतकाल तथा वर्तमान काल में भी एक दूरी है। यद्यपि व्यक्ति में वर्तमान में होते हुए भी भूतकाल से जुड़ा हुआ है, किन्तु वह प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देता। इस प्रकार व्यक्ति के सामने यदि एक कालगत दूरी है तो दूसरी देशगत और तीसरी दूरी है व्यक्तिगत।

जब आप इतिहास की घटना पढ़ते हैं तो वह घटना किसी एक काल में घटित हुई है और वह भूतकाल था, किन्तु हम वर्तमान में हैं। और घटना जब घटित होती है तो भूगोल में किसी एक स्थान-विशेष में घटित होती है और हम जहाँ बैठे हुए हैं उसमें देशगत दूरी भी है। इसका अभिप्राय यह है कि हम भले ही श्रीअवध की चर्चा करें; किन्तु हम तो शरीर से बैठे हैं कलकत्ता में और कलकत्ता तथा अयोध्या के बीच देशगत एक दूरी है। इसी प्रकार से जब हम त्रेतायुग की घटनाओं का अथवा पुरानी किसी घटना का वर्णन करते हैं तो मानो कालगत दूरी होती है। जब इतिहास के पात्रों का वर्णन किया जाता है तो ऐसा लगता है कि ये व्यक्ति कभी थे और आज नहीं हैं। इस तरह से ये तीनों दूरियाँ सर्वदा विद्यमान रहती हैं। किन्तु भई ! समाज में आवश्यकता देश, काल और व्यक्ति की इस दूरी को मिटाने की है।

मान लीजिए कोई भूतकाल आपको बड़ा प्रिय है, कोई स्थान आपको बहुत प्रिय है अथवा किसी व्यक्ति के प्रति आपको राग है, किन्तु यह सब होते हुए भी व्यावहारिक दूरी बनी ही रहेगी। परन्तु दो ही ऐसे उपाय हो सकते हैं जिनसे हम उस देश, काल, और व्यक्ति से अपने आपको जोड़ सकें जिसका वर्णन इतिहास में किया गया है। और वे उपाय हैं- कि या तो हम स्वयं देश, काल, व्यक्ति के पास पहुँच जाएँ या फिर उस देश, काल, व्यक्ति को हम अपने वर्तमान में ला सकें। इसका सीधा-सा अभिप्राय है कि जैसे नदी के दोनों किनारों पर यदि व्यक्ति खड़े हों तो इस किनारें का व्यक्ति अगर उस किनारे चला जाय अथवा उस किनारे का व्यक्ति इस किनारे आ जाय तो दूरी मिट जाएगी। इसी प्रकार या तो व्यक्ति भूत में चला जाय और फिर भूत को ही वर्तमान में ले आवे। वस्तुत: भूत में चले जाना यह इतिहास का अध्ययन है तथा भूत को वर्तमान में ले आना यह भक्ति शास्त्र है। जब आप इतिहास पढ़ते हैं तो उस समय तक अपने आपको उस देश, काल, व्यक्ति के तदाकार पाते हैं पर इतिहास पढ़ लेने के बाद आपको यह अनुभव होता है कि ये घटनाएँ कभी घटित हुई थीं और वे हमारे जीवन से दूर हैं। पर कथा की प्रक्रिया का तात्पर्य सर्वथा अनोखा है। इसे हम एक सरल दृष्टान्त के माध्यम से समझ सकते हैं।

यदि हमें किसी भूतकाल का वर्णन पढ़कर बड़ा अच्छा लग रहा है, किन्तु समस्या यह है कि वह भूत वर्तमान में तो नहीं आ सकता है। मान लीजिए त्रेतायुग में रामराज्य एक आदर्श राज्य था और रामराज्य का वर्णन पढ़कर व्यक्ति को स्वाभाविक रूप से प्रसन्नता होगी ही, किन्तु उनको पढ़ने मात्र से, व्यक्ति की समस्याओं का समाधान तो नहीं हो जाएगा। भूतकाल में रामराज्य की श्रेष्ठता को यदि हम वर्तमान में नहीं ला सकते तो हमारा आनन्द केवल बौद्धिक आनन्द है, उसकी परिणति व्यावहारिक रूप में नहीं है, उसका पूरा लाभ नहीं है। किन्तु इतिहास के द्वारा उत्पन्न की गयी जो देश, काल, वैयक्तिक दूरियाँ हैं उन्हें मिटाने का जो अद्भुत सेतु है उसी का नाम कथा है। आइए ! इस संदर्भ में अब श्रीरामचरितमानस के कई प्रसंगों पर दृष्टि डालें और उनका अन्तरंग तात्पर्य समझने की चेष्टा करें।

इस दोहे में चित्त की तुलना चित्रकूट से की गई, इसका अभिप्राय क्या है ? सर्वप्रथम इस पर विचार करें। आप रामकथा में यह पढ़ते अथवा सुनते हैं कि जब भगवान् श्रीराम ने अयोध्या के राज्य का परित्याग किया तब वे चित्रकूट में जाकर बसे और वहीं भगवान् श्रीराम तथा श्रीभरत का मिलन हुआ। लेकिन पढ़ने अथवा सुनने के बाद यह लगता है कि जो त्रेतायुग में था आज यदि उसका रूप है भी तो हमारे यहाँ से दूर है। और इसी प्रकार जब हम यह पढ़ते हैं कि त्रेतायुग में हुआ तो हमें लगता है कि हम तो कलियुग में बैठे हुए हैं और जब हमें यह सुनने को मिलता है कि श्रीभरत और भगवान् श्रीराम का मिलन होने पर श्रीभरत भाव में डूब गए, तो हमें लगता है कि जब श्रीभरत का मिलन हुआ तो उनको आनन्द की अनुभूति हुई होगी, हमें इससे क्या लाभ ? इसलिए गोस्वामीजी ने एक बड़ी मीठी बात कही- लंका विजय के पश्चात् जब भगवान् श्रीराम लौट करके अयोध्या आए और श्रीभरत से उनका मिलन हुआ हो उस मिलन की घटनाओं का वर्णन कथा के माध्यम से कर रहे हैं भगवान् शंकर और श्रोता हैं पार्वती। जब पार्वतीजी सुनती हैं कि –

गहे भरत पुनि प्रभु पद पकंज।

नमत जिन्हनि सुर मुनि संकर अज।।

परे भूमि नहिं उठत उठाये।

बर करि कृपासिंधु उर लाए।।

स्यामल गात रोम भर ठाढ़े।

नव राजीव नयन जल बाढ़े।। 7/4/6

राजीव लोचन स्रवत जल तन ललित पुलकावलि बनी।

अति प्रेम हृदयँ लगाइ अनुजहि मिले प्रभु त्रिभुअन धनी।।

प्रभु मिलन अनुजहि सोह मो पहिं जाति नहिं उपमा कही।

जनु प्रेम और सिंगार तनु धरि मिले बर सुषमा लही।।

भगवान् श्रीराघवेन्द्र विमान से उतर चुके हैं पर श्रीभरत प्रभु से जान-बूझकर कुछ दूरी बनाए हुए हैं। क्योंकि भरत को चित्रकूट की याद भूली नहीं। चित्रकूट में हुआ यह था कि जब श्रीभरत सारे गुरुजनों और समाज को लेकर गये तो उन्होंने सारे अयोध्यावासियों को मन्दाकिनी के किनारे स्थापित किया कि आप लोग यहाँ विराजमान रहिए और मैं जाकर आश्रम में प्रभु के चरणों में साष्टांग प्रणाम करूँगा। वस्तुत: दैन्य के कारण श्रीभरत के मन में यह भय समाया हुआ था कि कहीं ऐसा न हो-

रामु लखन सिय सुनि मम नाऊँ।

उठि जनि अनत जाहिं तजि ठाऊँ।। 2/232/8

पता नहीं प्रभु मुझसे कितना रुष्ट हैं, लक्ष्मण भाई को पता नहीं मुझ पर कितना क्रोध है ? और इतने बड़े समाज को सामने वह क्रोध प्रकट न हो इसलिए मैं अकेले ही जाकर प्रभु को प्रणाम कर लूँ, यह श्रीभरत की भावना थी।

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Paperback

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Hindi

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Publishing Year

2014

Pulisher

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