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Description
यथासमय
हिन्दी के प्रमुख व्यंग्यकार शरद जोशी के साहित्यिक अवदान से भला कौन परिचित नहीं है। व्यवस्था तन्त्र में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा आम आदमी को ‘बोनसाई’ बनानेवाली सत्ता-संस्कृति के विरुद्ध वे लगभग जेहादी स्तर पर आजीवन संधर्षरत रहे।
शरद जोशी अपने सहज और बोलचाल के गद्य में ऐसी व्यंजना भरते हैं जो पाठक के मन मस्तिष्क को केवल झकझोरती नहीं, एक नयी सोच भी पैदा करती हैं। वाकई उनके व्यंग्य के तीर’ होते हैं, वे चाहे फिर ‘बैठे ठाले’ लिखें या ‘किसी बहाने’ कुछ लिख दें। इनमें सामाजिक विसंगतियों पर एक रचनाकार की तीखी निगाह है, और इसीलिए उनकी लेखनी समाज मे यंत्र तंत्र सर्वत्र फैले भ्रष्टाचार, शोषण, विकृति और अन्याय पर जमकर प्रहार करती है और सोचने के लिए बाध्य करती है।
भारतीय ज्ञानपीठ शरद जोशी के कई व्यंग्य-संग्रह प्रकाशित कर चुका है, जिनकी पाठकों द्वारा भूरि भूरि प्रशंसा की गयी है।
‘यथासमय’ शरद जी के अप्रकाशित लेकिन महत्त्वपूर्ण व्यंग्यों का संग्रह है, जिसे बड़े ही जतन से सँजोया गया है। पूर्व प्रकाशित संग्रहों से कुछ भिन्न और नये विषयों के साथ नये शिल्प और तेवर की छवि आपको इसमें मिलेगी।
आज से कुछ साल पहले
समझ छिछली होती जा रही है। गहराई गायब है और उसकी आवश्यकता भी अनुभव नहीं की जातीं। संगीत, में धर्म में, साहित्य या इतिहास में छिछलापन छा गया है जो गहरे हैं उनसे रिश्ता टूटता जा रहा है और वे अकेले जीने के लिए छोड़ दिये जाते हैं। कुछ साल पहले खबर थी कि विशेषज्ञता का जमाना आएगा। तब विस्तार और गहराई दोनों के प्रति हम आश्वस्त थे। आज उथलापन सर्वोपरि हैं। कृति से, रचना से विचार से व्यक्ति का जुड़ा होना, उसकी निजता अब मायने नहीं रखती। यदि यह उपयोगिता तलाशी जाने लगे तो किसी कम्युनिस्ट का पोप के प्रति आदर जताना या किसी पण्डित का मौलवी से बात न करना समान है, क्योंकि सब-कुछ जरूरत के तराजू पर तोल कर हो रहा है। सिद्धान्त थे तो दृढ़ता थी। मूल्य होते हैं तो उस पर डटे रहने की जिद होती है। अब बयान बदलने का संकोच समाप्त हो गया, धुन चुराने में शर्म नहीं आती, कविता जगह घेर कर प्रसन्न है, इतिहास मात्र एक सन्दर्भ है, अब सफलता सीढ़ियों द्वारा ही केवल नापी जाती है। बिक्री हो जाने की क्षमता श्रेष्ठता का अन्तिम प्रमाण है। केवल उपभोक्ता बाजार में ही गुणवत्ता अपने होने की सूचना दे पाती है। कुछ साल पहले चक स्थितियाँ इतनी गिरी हुई नहीं थी।
भीड़ आपसे अपरिचित है और आप भीड़ से। अन्य शक्तियों की तरह भीड़ भी अब डराती हैं। चूँकि व्यक्ति के उन्नयन की सम्पूर्ण प्रक्रिया भ्रष्ट हैं, अतः प्रवर्तक शक्ति के रूप में आप भीड़ को देखने में संकोच करते हैं। भीड़ या समाज का समूह अब पावन तालाब या पवित्र गंगा नहीं रहे। इसकी कोई गारण्टी नहीं कि वह आपको सही ढाँचे में ढालकर, निखारकर ले जाएगी। जन की विराट उपस्थिति अब गाँधी या लेनिन को ताकत नहीं देती, न उभारकर लाती है। पहले अकेला आदमी खरीदा जा सकता था, अब भीड़ खरीदी जा सकती है। विदेश का पैसा आपके देश का एक पूरा प्रान्त खरीद सकता है। कुछ साल पहले बुद्धिजीवी यह सोच मन को समझा लेते थे कि जो भी गलत गड़बड़ या अशुभ हैं वह जनशक्ति द्वारा सुलझाया या सँवार लिया जाएगा, यदि ऐसा नहीं होता तो समझने में गड़बड़ है। क्या वह आज भी उतने ही जोर से यह बात कह सकता है ? विचारों के, मान्यताओं के आग्रह जन-विरोधी न हों, पिर भी जन की कोई कसौटी उन्हें परखने के लिए उपलब्ध नहीं है। आदमी को उसके इतिहास से, मानव संस्कृति की धारा से काटकर शुद्ध वर्तमान में बाँधकर खड़ा कर देने की जो साजिश बीस वर्ष पूर्व चालू हुई थी, अब वह अपना रंग दिखा रही है। आज आप राइफल थमाकर आदमी की आत्मा अपने पास गिरवी रख सकते हैं।
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2022 |
Pulisher |
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