Bharat Ki Kahani

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Bharat Ki Kahani

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Author: Bhagwatsharan Upadhyay

Availability: 5 in stock

Pages: 72

Year: 2019

Binding: Paperback

ISBN: 9788170284659

Language: Hindi

Publisher: Rajpal and Sons

Description

भारत की कहानी

भारत एक महान् देश है, जिसके संबंध में परिचय देने वाली यह पुस्तकमाला भारत के सभी पक्षों का पूरा विवरण देती है। प्रत्येक पृष्ठ पर दो रंग में कलापूर्ण चित्र, सुगम भाषा और प्रामाणिक तथ्य। इस पुस्तकमाला के लेखक हैं, प्रसिद्ध साहित्यकार, इतिहास और कला के मर्मज्ञ डॉ. भगवतशरण उपाध्याय।

भारत की कहानी

बड़ी पुरानी बात है। इतनी पुरानी कि सालों महीनों में हम अनुमान न लगा सकें। लगाने चलें तो दिमाग चकरा जाए। करोड़ों-अरबों वर्ष पहले की बात है।

तब यह ज़मींन थी। न इस पर रेंगने दौड़ने वाले जीव जन्तुओं का वास था, न हम थे। चारों ओर आसमान की तरह सूना था। बस, आसमान में अनगिनत तारे चमकते थे, जैसे आज भी चमकते हैं। सूरज था, पर चाँद न था। न दिन था, न रात थी, बस सूना। न बादल, न बिजली, न वर्षा

एक बार एक ठण्डा तारा सूरज का-सा बड़ा तारा अपनी जगह से एकाएक सरक पड़ा। ज्यादातर तारे चलते हैं। उनकी अपनी-अपनी गोलाकार राह होती है। उसी पर सदा चलते रहते हैं वे और जब अपनी राह से भटक जाते हैं तो प्रलय हो जाती है। स्वयं चूर-चूर हो जाते हैं, दूसरों को भी चूर-चूर कर डालते हैं।

सो, एक बड़ा तारा जो सरका तो उसने प्रलय मचा दी। सूरज से वह टकरा गया। सूरज आज ही की तरह आग का गोला था, जमीन से लाखों गुना बड़ा। उस तारे से टकराने से सूरज भी खण्ड-खण्ड हो गया। उसके टूटे हुए टुकड़े और चूर होकर बिखर गए, उसके चारों ओर एक जलता टुकड़ा।

धीरे-धीरे अपनी आग की गरमी बाहर फेंकती-फेंकती हमारी ज़मीन ठण्डी होने लगी। इसकी गर्मी और भाप से आसमान में बादल घुमड़ने लगे। गरज-गरजकर जमीन पर बरसने लगे।

जमीन और ठण्डी हुई। उसके ऊपर कीचड़ हुई। कीचड़ सूखकर चट्टानें बनी। भीतर भी वह ठोस होने लगी। उसमें धीरे-धीरे तांबा, टीन, चाँदी, सोना, लोहा, कोयला, हीरा, जवाहर बने। इसी से यह जमीन वसुधा कहलाई-रत्न धारण करने वाली वसुन्धरा।

तब ज़मीन रह-रहकर काँप उठती थी। उसके भीतर की आग और गर्मी तथा वर्षा के पानी से भाप बनती, जो ऊपर हवा में निकल जाना चाहती। राह न मिलने से जमीन की छाती फाड़कर निकलती है। सारी ज़मीन हिल जाती है। उसमें भूकम्प आ जाते हैं। इन्हीं भूकम्पों से ऊँचे-ऊँचे पहाड़ बने, छिछले मैदान निकल आए। जल थल से बड़ा था, चौगुना बड़ा। समुन्दर का जल सूरज अपने हजार हाथों से खींचता। उससे फिर-फिर बादल बनते, फिर-फिर बरसते। बादल पहाड़ों से टकरा-टकरा कर बरसते। ऊँचे पहाड़ों की चोटियाँ बर्फ से ढकी थीं। उनके गलने से पानी की धाराएँ मैदानों में बह चलीं, जो वर्षा जल पाकर और उमड़ीं। ये ही धाराएँ सिन्धु, गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र कहलाईं। नर्मदा, गोदावरी, महानदी कहलाईं। पहाड़ हिमालय, विन्ध्याचल कहलाए और हमारी यह लम्बी चौड़ी जमीन अपनी फैली लम्बाई-चौड़ाई के कारण पृथ्वी कहलाई।

पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती थी; सूरज के चारों ओर घूमती थी जैसे वह आज भी घूमती है। इससे रात दिन हुए; जाड़ा गरमी, बरसात नाम की ऋतुएँ हुईं। अपनी जगह पर घूमने से रात दिन; सूरज के चारों ओर घूमने से ऋतुएँ। पृथ्वी का जो भाग सूरज के सामने होता, वह उजाले से चमक उठता; तब दिन कहा जाता। जो पीछे रहता वह अँधेरा होता; तब रात बनती।

फिर धीरे-धीरे मिट्टी पत्थर में जान पड़ी, जीव जन्मे। पहले काई, झुरमुट व कीचड़ में रेंगनेवाले बिना रीढ़ के कीड़े, फिर जाल में रहने वाले, फेफड़ों से सांस वाले मगर, मछली। फिर लाखों किस्म के जानवर बन्दर, वनमानुस और आखिर में दुनिया को जीतने वाला आदमी।

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Paperback

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Language

Hindi

Pages

Publishing Year

2019

Pulisher

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