Hamare Pujya Devi-Devta

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Hamare Pujya Devi-Devta

Hamare Pujya Devi-Devta

80.00 79.00

In stock

80.00 79.00

Author: Swami Avdheshanand Giri

Availability: 10 in stock

Pages: 208

Year: 2016

Binding: Paperback

ISBN: 9788131010860

Language: Hindi

Publisher: Manoj Publications

Description

हमारे पूज्य देवी-देवता

‘देवता’ का अर्थ दिव्य गुणों से संपन्न महान व्यक्तित्वों से है। जो सदा, बिना किसी अपेक्षा के, सभी को देता है, उसे भी ‘देवता’ कहा जाता है। पुराणों में ऐसे दिव्य पुरुषों का वर्णन कई स्थानों पर मिलता है जो देव-अंश होते हैं और अपने कर्मों द्वारा अन्य को धर्माचरण की प्रेरणा देते हैं।

प्रजापति ब्रह्मा की सृष्टि का वर्णन पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे स्वयं अनादि होते हुए भी किसी से उत्पन्न हुए हैं अर्थात उनका भी कोई मूल कारण है जिसे उपनिषदों में ‘ब्रह्म’ कहा गया है। यह ‘ब्रह्म’ सृष्टि के संकल्प से प्रेरित होकर त्रिदेवों-ब्रह्मा, विष्णु और शिव के रूप में प्रकट होता है। अलग-अलग धर्म ग्रंथों में भिन्न-भिन्न देवताओं, विशेषकर इन त्रिदेवों को मूल कारण के रूप में पढ़कर लोग भ्रमित हो जाते हैं। यह स्थिति बिलकुल ऐसी है, मानो कोई किसी व्यक्ति को पिता, पुत्र, दादा, भाई या पति के रूप में देखकर परेशान हो जाए। जिस तरह ये संबोधन सापेक्ष हैं, उसी तरह देवताओं की भिन्नता भी उनके कार्य के कारण रूप-स्वरूप आदि के संदर्भ में भिन्न-भिन्न हो जाती है। इस तरह यदि यह कहा जाए कि स्वर्ण ही अनेक आभूषणों के रूप में नानाविध दिखाई पड़ता है तो गलत नहीं होगा। इस दृष्टि से देवी-देवताओं एवं ब्रह्म की परम चेतना ही दिव्यता के रूप में दिखाई दे रही है।

उपनिषदों में संकेत है- रूपं रूपं प्रतिरूपो वभूव और एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति अर्थात वह एक अरूप अनेक रूपों में प्रकट हो गया तथा एक सत्य को तत्ववेत्ता अनेक रूपों में कहते हैं। श्रीमद्भगवद् गीता में श्रीकृष्ण ने जिन विभूतियों का वर्णन किया है, उन्हीं में भगवान की चेतना है, ऐसा नहीं। हां, उन-उन व्यक्ति विशेषों में दिव्यता की अभिव्यक्ति विशेष रूप से होती है-जिस प्रकार अग्नि व्यापक होने पर भी चकमक पत्थर में विशेष रूप से प्राप्य है। भगवान ने ‘श्रीमद्भगवद् गीता’ के सातवें अध्याय के 23वें श्लोक में जो कहा, उसे सही रूप में समझ न पाने के कारण लोग देवी-देवताओं के परमात्मा से अलग अस्तित्व मानने की भूल कर बैठते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं-

देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥

अर्थात देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझे।

इससे पहले आए ‘गीता’ के सातवें अध्याय के 21वें श्लोक में भगवान का देवताओं से संबंध स्पष्ट हो जाता है। यहां इस संकेत को भली-भांति समझना अपेक्षित है, यथा-यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितमिच्छति तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्॥ अर्थात जो-जो भक्त जिस-जिस देवता का श्रद्धापूर्वक पूजन करना चाहता है, उस-उस देवता में ही मैं उसकी श्रद्धा को दृढ़ कर देता हूं।

इस प्रकार यहां श्रद्धा का भाव प्रमुख है। कामना के अनुरूप श्रद्धा और उसके अनुसार देवता का चयन उपासना की आंतरिक प्रक्रिया है। इसके घटित होने पर ही कामना पूर्ण होती है। इसमें भी देवताओं की विभिन्नता होने पर भी प्रत्येक उपासक के अंतर्जगत में होने वाली प्रक्रिया एक-सी होती है, तभी तो उपासनाओं के बाह्य रूप के भिन्न होने पर भी उनका परिणाम एक-सा होता है-सभी यथेच्छ सिद्धि प्रदान करती हैं। बाहरी दृष्टि से कहा जाता है कि रास्ते अलग-अलग हैं लेकिन मंजिल एक है, जबकि श्री रामकृष्ण परमहंस सरीखा सिद्ध महापुरुष कहता है-दिखते अलग-अलग हैं, लेकिन उसे पाने का मार्ग एक ही है। नान्यः पंथा—अन्य कोई मार्ग नहीं है अर्थात एक ही रास्ता है।

देवी-देवताओं की अनेकता में एकता और इनके रूप-स्वरूप को जानने के बाद साधक के जीवन में किसी बात का पूर्वाग्रह नहीं रह जाता। जब एक ही तेंतीस करोड़ बना है, तो सब अपने ही तो हैं। अनेकता में एकता का दर्शन कराना ही इस पुस्तक का लक्ष्य है।

व्यवहार के विभिन्न पहलुओं को समझने के लिए इन देवी-देवताओं के साथ जुड़ी कथाएं अत्यंत रुचिकर हैं। प्रतीक के रूप में कही गई ये कथाएं मनोरंजक होने के साथ शुभ संस्कारों का बीज बालमन में रोपती हैं। ये कथाएं एक ओर जहां जीवन-दर्शन को समझाती हैं, वहीं आचरण की पवित्रता और सत्कर्म निष्ठा पर भी बल देती हैं। यही इनकी व्यावहारिक सार्थकता है।

– गंगा प्रसाद शर्मा

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Binding

Paperback

ISBN

Language

Hindi

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Publishing Year

2016

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