Indhan

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Author: Swayam Prakash

Availability: 5 in stock

Pages: 271

Year: 2023

Binding: Paperback

ISBN: 9788181431189

Language: Hindi

Publisher: Vani Prakashan

Description

ईंधन

बचपन की स्मृतियाँ बहुत तृस्त करने वाली हैं। वह तपती रेत पर निरंतर नंगे पैरों की दौड़ जैसा ही है। मेरे पिता जी एक प्रेस में कम्पोजीटर थे। गुजारा मुश्किल से ही चलता था। पाँच बहन-भाइयों में मैं सबसे बड़ा था। पिता जी का, लोग कहते थे, किसी दूसरी औरत से सम्बन्ध था। कई रातें उनकी वहीं बीतती थीं। माँ को कोई रहस्यमयी बीमारी थी। पता नहीं पिताजी को भी ठीक से पता था या नहीं कि माँ को क्या बीमारी है। शायद उन्हें पता होगा पर, वह बताते नहीं थे। इतना जरूर है कि बीमारी असाध्य होगी और संक्रामक भी। इसलिए उसका नाम नहीं लिया जाता था।

माँ के सारे बदन में हड्डियाँ निकली हुई थीं। कुछ इस तरह कि वह ज़्यादा देर बैठ भी नहीं सकती थीं। सख्त बिस्तर पर ज़्यादा देर लेटना भी उनके बस का नहीं था। वह दिन रात कराहती रहतीं थीं। एक नौकरानी आकर उनके कपड़े धो जाती थी, कभी-कभी उन्हें नहला भी जाती या उनका बदन गीले तौलिये से पोंछ जाती थी। बाकी घर के कपड़े छोटी बहन धोती थी। सुना यह भी था कि डॉ. गिज़ा के लिए कहते हैं, आबोहवा बदलने के लिए कहते हैं। दोनों चीजें हमारे बस में नहीं थीं। एक बार किसी ने कहा कबूतर का शोरबा पिलाओ, पर यह भी सम्भव नहीं था क्योंकि माँ शाकाहारी थी। वह दवा भी मुश्किल से पीती थीं। उन्होंने अपने तिल-तिल करके मरने को चुपचाप स्वीकार कर लिया था। वह भगवान का नाम भी नहीं लेती थीं। उन्हें किसी चीज की ज़रूरत भी होती तो हमे नहीं पुकारती थीं। पुकारती भी तो उनकी कमज़ोर आवाज़ किसी तरह हम तक नहीं पहुँचती। हम ही बीच-बीच में उनके कमरे मे जाकर पूछ आते-माँ, कुछ चाहिए ?

माँ को देखकर कभी नहीं लगा कि उनके मन में कोई अतृप्त इच्छा अटकी होगी। उन्हें बस दो ही बातों का अफसोस था। एक ठाकुर जी की सेवा नहीं कर पातीं और दो बच्चों को कुछ बनाकर खिला नहीं पातीं। घर में तो नहीं, पर बाद में अस्पताल में जब हम माँ को देखने या खिचड़ी वगैरह देने जाते-उनकी आँखों में हमें प्यार करने की एक ललक छटपटाती नज़र आती। हम उसे ठीक से समझ नहीं पाते। माँ तब बहुत दिनों तक हमारे दैनिक सुख-दुख से बाहर थीं इसलिए वह हमारे लिए जैसे दूर की कोई रिश्तेदार हो गयी थीं। एक बार उन्होंने अपना हड्डी-हड्डी हाथ मेरे सिर पर फेंरकर पूछा-तू कौन सी क्लास में आ गया ? लेकिन जब मैंने बताया तो मानो उन्होंने सुना ही नहीं।

एक

रोहित

यह बात मैं बहुत दिनों तक नहीं समझ पाया कि स्निग्धा ने मुझसे शादी क्यों की ? अब भी समझ गया हूँ यह कहना ठीक नहीं होगा। मुझे बिल्कुल भी समझ में नहीं आया कि उसने मुझमें आखिर क्या देखा ? इसमें कोई तर्क नहीं था हमारा कोई जोड़ कोई मुक़ाबला कोई पासंग नहीं था। कोई तुक नहीं थी इसमें। सरासर अविश्वसनीय लगने वाली बात थी। जिन्होंने सुना उन्होंने भी विश्वास नहीं किया। जो शामिल हुए वे आँखों के सामने सब कुछ होता देखकर भी यकीन करने में कठिनाई का अनुभव कर रहे थे। और शादी की। शादी के दो साल पहले तक मैं उसे जानता तक नहीं था। वह कहती थी कि वह मुझे जानती थी-हो सकता है देखती जानती रही हो-पर मुझे तो इसमें भी सन्देह है। हम एक ही कॉलेज में थे, लेकिन एक ही कक्षा में नहीं। एक ही फेकल्टी तक में नहीं।

वह आर्ट्स में थी, मैं कॉमर्स में। कॉलेज में बहुत सारे छात्र थे। एक से एक हीरो। मैं तो रात में प्रेस में काम करता था, दिन में ट्यूशनें करता था, खादी का कुरता ज़ीन्स पर लटकाये कॉलेज चला आता था कभी-कभार क्लास भी अटेण्ड कर लेता था। मेरा कॉलेज आना न नियमित था न गंभीर। जाता भी तो एक या डायरी लेकर कैण्टीन में बैठा रहता था। और किताब पढ़ता रहता था या अखबार या  डायरी या झोले से प्रूफ निकालकर पढ़ता रहता था और बीड़ियाँ धूँकता रहता था। मुझे डिग्री चाहिए थी जो मैं जानता था कि बगैर नियमित रूप से कक्षा में जाए भी मिल जाएगी। दूसरी तरफ स्निग्धा थी जो कार में बैठकर कॉलेज आती थी और जिसके दीवानों की कोई कमी नहीं थी। दरअसल उसकी अपनी एक टोली थी जिसमें लड़के भी थे, लड़कियाँ भी और जिनका काम उसकी कार में घूमना, पिकनिक मनाना, होटलों में खाना-पीना और जीवन के कुछ वर्ष निश्चिन्त भाव से मटरगश्ती करना था। कुछ और भी रहा हो सकता है। मैं कह नहीं सकता। दरअसल मैं उन लोगों को बहुत कम जानता था-लगभग नहीं के बराबर और जानना जरूरी भी नहीं समझता था। मेरे पास समय ही नहीं था। और होता भी तो उनकी दुनिया मेरी रुचियों के दायरे से बहुत बाहर थी।

शायद स्निग्धा ने अपने किसी आशिक को उसकी बेवफाई या बेरुखी का सबक सिखाने के लिए मुझसे शादी कर ली थी। हो सकता है उसने अपने अकडू बाप से बदला लेने के लिए ही मुझसे शादी कर ली हो। यह भी हो सकता है कि उसने सबके अनुमान ग़लत साबित करने और सबको चौंका देने के लिए ही ऐसा निर्णय ले लिया हो सकता है वह दुनिया को दिखा देना चाहती हो कि वह ज़र्रे को भी आसमान का सितारा बना सकती है। हो सकता है उसके मन में कोई और बात रही हो…लेकिन सच तो यह है कि जब उसने पूछा था-मुझसे शादी करोगे ? तो मैंने यही समझा था कि ये रईस और फैशनेबल छोकरे-छोकरी मिलकर मेरी हँसी उड़ाने की कोई योजना बना बैठे हैं। मैं जानता था कि स्निग्धा पैसा वाली है, बल्कि मैं उसकी कृपा से आक्रांत भी था। एक दिन वह कैण्टीन में मेरी जगह पर बैठी थी और मेरे पहुँचने पर भी उठी नहीं थी, बल्कि उसने मुस्कुराकर मुझसे पूछा था कि कल मैं क्यों नहीं आया ?

वह दिन भर यहीं मेरी प्रतीक्षा करती रही। मुझे ताज्जुब हुआ कि वह मुझे जानती है। मैं क्या कहता ? मैं सकपका गया। मैंने पूछा कुछ काम था ? मेरा प्रश्न उसने सुना ही नहीं…एक कुर्सी खींच लायी….चाय माँग ली…गाल पर हाथ रखकर बैठ गयी और बस देखती रही। मैं चुपचाप चाय पीता रहा और सोचता रहा कि कौन-कौन देख रहा होगा और सोच रहा होगा कि माजरा क्या है ? जब हम चाय पी चुके तो उसने हँसकर कहा कि मैं बीड़ी क्यों नहीं निकाल रहा ?

और खिलखिलायी और फिर मेरी तारीफ करने लगी कि मैं बहुत हेण्डसम हूँ और बहुत मेच्योर हूँ और कुरते में बहुत डेशिंग लगता हूँ और एक अंग्रेज अभिनेता का नाम लिया कि मैं बिल्कुल वैसा लगता हूँ कि जिसका मैंने नाम तक नहीं सुना था और मेरे बाल बहुत दिलफरेब और आवाज़ बहुत दिलकश और आँखें बड़ी मारक हैं और कि मैं बहुत डिफ्रेण्ट हूँ…दूसरों से बहुत अलग हूँ। आदि आदि। इस सबकी कोई आवश्यकता नहीं थी क्योंकि मैं अब तक आराम से उसकी सुन्दरता की चपेट में आ चुका था। मैंने आज तक कोई इतनी सुन्दर लड़की इतने पास से नहीं देखी थी। मुझे उसे देखने भर से उसे छूने का एहसास हो रहा था। बल्कि मैं नर्वस हो रहा था। मेरा गला सूख रहा था। मुझे सूझ नहीं रहा था कि उससे क्या बात करूँ ? बल्कि मुझे तो यह भी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं कहाँ देखूँ ? मुझे डर लग रहा था कि मैं कहीं ऐसी वैसी जगह निगाहें न गड़ा लूँ जोकि बड़ी शर्म की बात हो जाए मेरे लिए। उसके साथ का हर पल एक अलौकिक अभूतपूर्व लेकिन अत्यंत पीड़ादायक आनन्द की वर्षा कर रहा था। मैं असुविधा महसूस कर रहा था और सोच रहा था कि कब यह स्वर्गिक मुलाक़ात खत्म हो। वह सामने थी और मैं मानसिक रूप से उन क्षणों में पहुँच भी चुका था कि जब वह मुझसे निराश होकर जा चुकी है और मैं अपने चुग़दपने को कोसता, हाथ मलता बैठा रहा गया हूँ।

लेकिन वह समझ रही थी। उसे मालूम था कि ऐसा ही होगा। उसे बुलवाना आता था। उसने एकदम मामूली लगनेवाली बातें करके आधे घण्टे के भीतर ही मुझे खोल लिया और मैं गौरवान्वित सा महसूस करने लगा। हीरो जैसा महसूस करने लगा। सोचने लगा कि सब मुझसे जल रहे हैं। बेशक, बिल भी उसी ने चुकाया और कुल मिलाकर एक ही मुलाकात में उसने मुझे इतना फचीट लिया कि मैं कम से कम एक महीने उसके लिए विह्वल रहूँ।

फिर वह जो मेरे कुरते-ज़ीन्स की तारीफ करती नहीं अघा रही थी, दूसरे दिन दो दो रेडीमेड कमीजें लिये मेरे घर आ धमकी और मेरी सख्त निगरानी के बावजूद उसकी आँखों में मेरे पसमांदा घर के लिए कोई टिप्पणी नहीं पायी जा सकी। जैसे घर के उसे क्या मतलब ? या जैसे घर मेरा नहीं, किसी और का हो। और फिर वह जो मेरे बीड़ी पीने पर मर मिट रही थी-रोज मेरे कुरते की जेब में डालने के लिए एक महँगी सिगरेट का पैकेट लाने लगी। और मैं जन्मजात भुक्खड़ अच्छे होटल की चाय और सिनेमा के बालकनी के टिकट और कार की सवारी और आइसक्रीम और महँगे तोहफों के लालच में लार टपकाता-यह जानते हुए भी कि संभवत मुझसे खेल किया जा रहा है-इस खेल में शामिल हो गया।

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Paperback

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Language

Hindi

Pages

Publishing Year

2023

Pulisher

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