Kala Ghora

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Kala Ghora

Kala Ghora

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Author: Anna Sewell Translated Suresh Salil

Availability: 5 in stock

Pages: 80

Year: 2019

Binding: Paperback

ISBN: 9788174830098

Language: Hindi

Publisher: Rajpal and Sons

Description

काला घोड़ा

मुझे अपनी ज़िन्दगी की सबसे पहली जगह जो अच्छी तरह याद है, वह एक बड़ा-सा चरागाह था। उसके बीचोंबीच साफ पानी का एक तालाब भी था, जिसके किनारे कुछ छायादार वृक्ष लगे हुए थे और बीच में नरकुल व कुमुदिनी की बेलें थीं। अपने बचपन में, जब मैं घास नहीं खा पाता था और मां का दूध पीकर ही रहता था। उन दिनों दिन में मैं अपनी मां के साथ भागता रहता और रात में उसी से सटकर सो जाता। जब गर्मी और धूप से हम परेशान होते तो हम तालाब के किनारे वृक्षों की छाया में चले जाते। जाड़े के दिनों में ठंड से बचने के लिए हमारे पास एक खूबसूरत और आरामदेह घुड़साल थी।

जैसे ही मैं बड़ा हुआ और घास खाने लगा, मेरी मां दिन में काम पर जाने लगी। वहां से वह शाम को वापस आती। चरागाह में मेरे अलावा छः छोटे बछड़े और थे। वे उम्र में मुझसे बड़े थे। कुछ तो इतने बड़े थे जैसे बड़े घोड़े। ज़्यादातर मैं उन्हीं सबके साथ दौड़ता रहता था और बहुत प्रसन्न रहता था। मैदान में हम जितना भी दौड़ सकते, इधर-से-उधर दौड़ते रहते। कभी-कभी हम लोगों के बीच कुछ देहाती किस्म के खेल भी होने लगते, जैसे दुलत्ती मारना, एक-दूसरे को काटने दौड़ना आदि।

एक बार की बात है। हम लोग आपस में खूब दुलत्तियां झाड़ रहे थे। तभी मेरी मां की नजर हम पर पड़ गई। मां ने मुझे अपने पास बुलाया और कहा, ‘‘मेरी बात ध्यान से सुनो ! जिन बछेड़ों के साथ तुम खेलते हो वे वैसे तो बड़े अच्छे बछेड़े हैं लेकिन हैं पूरे देहाती ! उन्हें रहन-सहन के अच्छे तरीके नहीं सिखाए गए हैं जबकि तुम एक बड़े घराने के हो और तुम्हारे बाप-दादों ने बड़ा नाम कमाया है। तुम्हारे दादा ने दौड़ में लगातार दो साल तक इनाम जीते थे। मुझे भी तुमने कभी इस तरह के भद्दे खेल खेलते नहीं देखा होगा। मुझे उम्मीद है कि आगे से तुम इस तरह के बछेड़ों से दूर रहोगे और बड़े होकर अपने पुरखों की तरह नाम रोशन करोगे।’’

अपनी मां की वे बातें मैं कभी नहीं भूल सका। मैं जानता था कि वह बड़ी समझदार है और हमारा मालिक उसका बड़ा ध्यान रखता है। वैसे तो मेरी मां का नाम ‘डचेस’ था लेकिन मालिक ज़्यादातर उसे ‘पैट’ कहकर पुकारता था। हमारा मालिक एक अच्छा और दयालू आदमी था। वह हमें खाने को हमेशा अच्छा चारा-दाना देता था और हमारे रहने के लिए उसने अच्छी जगह बना रक्खी थी। वह हमसे इतने प्यार से बात करता था मानो अपने सगे बच्चे से ही कर रहा हो। जैसे ही हमारा मालिक फाटक के पास आता, मां खुशी से हिनहिना उठती और दौड़कर उसके पास चली आती। वह उसे प्यार से थपथपाता और कहता, ‘‘कहो पैट, तुम्हारा डार्की कैसा है ?’’ मेरा रंग कुछ-कुछ हल्का काला था। इसलिए वह मुझे ‘डार्की’ कहता था। इसके बाद वह मुझे अपने हाथों से बड़ी स्वादु रोटी का टुकड़ा खिलाता। कभी-कभी वह मां के लिए एकाध गाजर भी ले आता। हालांकि वैसे तो सारे के सारे घोड़े उसके पास आते थे, लेकिन हमें वह बहुत चाहता था। जिस दिन कस्बे का बाज़ार लगता उस दिन मेरी मां ही उसे बाज़ार ले जाती।

कभी-कभी हमारे चरागाह में डिक नाम का एक देहाती लड़का भी आता था। वह पेड़ों से बेर तोड़-तोड़कर खाता रहता और खा चुकने के बाद बछेड़ों को छेड़ता। उसे बछेड़ों की दौड़ अच्छी लगती थी। इसलिए वह उन्हें छड़ी और पत्थर मारकर दौड़ने को मजबूर करता। उसकी इन बातों की ओर हम ज्यादा ध्यान नहीं देते थे, क्योंकि दौड़ना हमें खुद अच्छा लगता था। लेकिन अगर किसी दिन पत्थर से हमें चोट लग जाती तो ?

एक दिन हमारे मालिक ने डिक की हरकतों को देख लिया। वह दौड़कर आया और डिक के कंधों को झकझोरते हुए बोला, ‘‘नालायक कहीं के ! हमारे बछेडों को फिज़ूल दौड़ाता है ! अगर फिर कभी तुझको ऐसी हरकत करते देख लिया तो तेरी खैर नहीं ! जा, भाग जा यहां से ? आइन्दा यहां कभी नहीं फटकना।’’

इसके बाद में डिक फिर कभी नहीं दिखाई दिया। घोड़ों का साईस एक बुड्ढा आदमी था, उसका नाम डेनियल था। वह हमारे मालिक की ही तरह एक सीधा आदमी था, इसलिए हम लोगों को कोई तकलीफ नहीं हुई।

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Authors

Binding

Paperback

ISBN

Language

Hindi

Pages

Publishing Year

2019

Pulisher

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