Kanyadan

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Author: Harimohan Jha Translated by Vibha Rani

Availability: 1 in stock

Pages: 104

Year: 2015

Binding: Hardbound

ISBN: 9788170552826

Language: Hindi

Publisher: Vani Prakashan

Description

कन्यादान

साहित्य आकादमी पुरस्कार द्वारा सम्मानित प्रख्यात मैथिली कथाकार हरिमोहन झा का बहुचर्चित उपन्यास है ‘कन्यादान’ जो सिर्फ एक किताब नहीं, मिथिलांचल में करिश्मा सिद्ध हुआ है। सुखद आश्चर्य यह है कि इस उपन्यास को पढ़ने के लिए गैर-मैथिली-भाषियों ने मैथिली सीखी, जिसके पाठक साक्षर ही नहीं निरक्षर भी थे, जिन्होंने दूसरों को पढ़वा कर इसे सुना। इस उपन्यास ने लोकप्रियता का नया कीर्तिमान तो स्थापित किया ही, साहित्यक उपल्ब्धियों के शिखर पर भी पहुँचा।

कथाकार स्व. हरिमोहन झा का कथा-संसार बहुत व्यापक और क्रान्तिकारी है, जिसमें जीवन की इन्द्रधनुषी भंगिमाओं को अर्थवान पहचान मिली है।- और इसका सबूत है उनका यह व्यंग्य प्रधान रोचक उपन्यास ‘कन्यादान’। अपनी भाषायी रचावट और शिल्प की बुनावट में तो ‘कन्यादन’ अप्रतिम है ही, मैथिली समाज की मनोवृतित्त्यों और विसंगतियों को बेबाक एवं मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति देने में भी यह उपन्यास अद्वितीय है।

 

समर्पण

जो समाज कन्या को जड़ पदार्थ की भाँति दान कर देने में कुंठित नहीं होता, जिस समाज के सूत्रधार लड़के को पढ़ाने में हजारों रुपये पानी में बहा देते हैं और लड़की के लिए चार पैसे की स्लेट खरीदना भी आवश्यक नहीं समझते, जिस समाज में बी.ए. पास पति की जीवन-संगिनी ए.बी. तक नहीं जानती, जिस समाज को दाम्पत्य जीवन की गाड़ी में सर्कस के घोड़े के साथ निरीह बछिया को जोतते जरा-सी भी ममता नहीं आती, उसी समाज के महारथियों के कर-कुलिश में यह पुस्तक सविनय, सानुरोध और सभय समर्पित।

प्राक्कथन

(प्रथम संस्करण की भूमिका)

आज से तीन वर्ष पहले ‘मिथिला’ नाम की एक मासिक पत्रिका निकली थी उसके प्रकाशक थे श्रीयुत बाबू रामलोचन शरण और सम्पादक मंडल में थे श्रीयुत बाबू भोलानाथ दास, बी.ए., एल.एल.बी। एक दिन शाम के समय भोलानाथ बाबू गरदन पर सवार हो गये कि ‘मिथिला’ का अन्तिम फर्मा आपके ही लेख के कारण रुका हुआ है। झटपट कुछ लिखकर दे दीजिए जिससे कल छप जाए रात में मेरी समझ में जो कुछ भी आया उसे लिख-लाखकर उन्हें दे दिया। उसे ही कहा जा सकता है ‘कन्यादान’ का श्रीगणेश। उसके बाद जब-जब भोलानाथ बाबू का तगादा आता, थोड़ा बहुत लिखकर पिंड छुड़ा लेता। यह सिलसिला चार-पाँच अंकों तक चला।

‘कन्यादान’ के कुछ भाग प्रकाशित होते ही समालोचना की आँधी उठ गयी। कोई इसकी प्रशंसा के पुल बाँधने लगा तो कोई कुदाल से इसे ढाने लगा। लेकिन एक बात हुई अवश्य। ‘कन्यादान’ अपने जन्म से ही प्रसिद्ध हो गया। जो इसके विरोधी थे, वे भी इसके आगे का भाग पढ़ने हेतु बेचैन रहने लगे।

इसी समय ‘मिथिला’ शिथिला होकर सो गयी। ‘कन्यादान’ के लिए अतिचार का समय आ गया। मगर ‘कन्यादान’ इतना लोकप्रिय हो चुका था कि उसके सम्बन्ध में प्रकाशक के नाम से चिट्ठी पर चिट्ठी आने लगी। बाध्य होकर उन्हें इसे पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने पर विचार करना पड़ा। उन्होंने मुझसे आगे के भागों की माँग की। जब मेरी एम.ए. की परीक्षा समाप्त हुई तब जाकर तीन साल से अटकी ‘कन्यादान’ की गाड़ी फिर से सरकी और अन्ततोगत्वा स्टेशन पर पहुँचकर खड़ी हुई। अब जो कुछ भी है, सामने है। पुस्तक के विषय में मैं क्या कहूँ ? पुस्तक स्वयं अपने बारे में कहेगी।

समाज का यदि थोड़ा-सा भी उपकार या मनोरंजन यह कर सका तो समझूँगा कि इसका जन्म निरर्थक नहीं हुआ।

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Hardbound

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Language

Hindi

Pages

Publishing Year

2015

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