Kaushik Ramayana

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Kaushik Ramayana

Kaushik Ramayana

200.00 199.00

In stock

200.00 199.00

Author: S. Ram Chandra

Availability: 6 in stock

Pages: 309

Year: 1999

Binding: Hardbound

ISBN: 0

Language: Hindi

Publisher: Bhuvan Vani Trust

Description

कौशिक रामायण

तुलसी चरित रामचरित मानस में सात काण्ड हैं, अधिकांश रामायणों में छह काण्ड ही मिलते हैं और छठे युद्ध काण्ड के साथ ग्रन्थ समाप्त हो जाता है, यही चलन है। कौशिक रामायण का भी, जिसमें युद्धकाण्ड में ऐरावण द्वारा राम-लक्ष्मण हरण एवं वीर हनुमान द्वारा इस इष्टदेव-युग्म के उद्धार की कथा का भी समावेश किया गया है।

कर्नाटक के विभिन्न जिलों में तो यह ग्रन्थ लोक-प्रिय है, पर आवश्यकता थी कि हिन्दी-भाषी प्रान्तों के निवासी भी इसमें राम-रसामृत का पान करें, यदार्थ भुवनवाणी-ट्रस्ट लखनऊ द्वारा इसे प्रो. एस. रामचन्द्र की समर्थ लेखनी द्वारा अनूदित रूप में प्रस्तुत करते हुए हम प्रफुल्लित पारितोष पा रहे हैं और आशा करते हैं कि यह रामायण कविपुंगव तुलसी और पंडित राधेश्याम कथा-वाचक की लिखी रामायणों की भाँति प्रचलित हो सकेगी और इसका आनन्दित पारायण करके पाठक-गण अध्यात्म-पन्थ के सुदृढ़ पंथी होकर हमारे प्रयास को सफल करेंगे।

प्रकाशकीय

भारतीय वाङ्मय में राम-चरित्र का अपना विशेष महत्त्व है, क्योंकि भगवान राम के लोकरञ्जक और लोकरक्षक उभयरूपों का दिग्दर्शन उसमें कविजन करा सके हैं। राम-चरित-धारा के आदि प्रणेता तो महर्षि वाल्मीकि हुए। उनकी 24,000 श्लोकों की रामायण जो ‘वाल्मीकीय रामायण’ नाम से भगवान राम के धराधाम पर अवतरित होने के पूर्व ही दिव्यदृष्टि से लिख दी गयी थी, वही अवलम्ब बनी। परवर्ती संस्कृत, हिन्दी, बँगला, कन्नड आदि विभिन्न भारतीय भाषाओं के भक्त कवियों का संस्कृत कवियों में कालिदास भवभूति दिङ्गनाद आदि ने राम-चरित-रसापगा में अवगाहन कर अपने को पवित्र करते हुए भारतीय संस्कृति को उजागर किया।

हिन्दी कवियों में सूर, तुलसी, केशव, मैथलीशरण गुप्त और राजेश सदृश महाकवियों ने ‘रामचन्द्रिका, ‘साकेत’ और ‘सत्यनिष्ठराम’ सदृश महिमान्वित कृतियां प्रस्तुत करके इस धारा को प्रवहमान रखा। ‘राम-चन्द्रिका’ और ‘साकेत’ में भगवान राम के महाप्रयाण की कथा नहीं अंकित है। इस, अछूते विषय को ‘राजेश’ जी ने अपना वर्ण्य बना कर हिन्दी काव्य में नयी कथा सी जोड़ दी। यदर्थ उन्होंने स्वतः आविष्कृत षद्पद वर्णवृत्त-शैली को अंगीकृत किया, जिसके छह चरण अ ब स स ब अ क्रम से आद्यन्त आये हैं।

यथा-अयोध्या है नगरी धन्यातिधन्या। जन्मे जहाँ थे राघव जी हमारे।।-सत्यनिष्ठ राम यह तो निर्विवाद तथ्य है कि महर्षि और उनकी रामायण अद्यावधि रामचरित परक महात्तम ग्रन्थ है, परन्तु इतर कवियों ने भी अपने को कृतार्थ करने और जनता के सम्मुख मर्यादा पुरुषोत्तम का चरित रख कर उसे युगोचित दिशा प्रदान करने का यथाशक्ति प्रयास किया।

निज पौरुष अनुसार जिमि मसल उड़ाहि अकाश।

भारतीय वाङ्गमय में सर्वाधिक उत्कृष्ट साहित्य बँगला, तमिळ, कन्नड और हिन्दी में राम-चरित्र पर लिखा गया है। कन्नड के क्षेत्र में महाकवि बत्तलेश्वर की लिखी हुई रामायण, जिसे कौशिक रामायण भी कहा गया है। राम की पावन कथा का जो अंकन किया है, उसमें भाषा का सहजप्रवाह, भाव-भूति, उक्ति, वैचित्रय, और अर्थ-गौरव की मनोज्ञता पग-पग पर दर्शनीय है।

अर्थ-गौरव इस महती कृति की सर्वाधिक प्रमुख विशिष्टता है। संस्कृत में भारवि अपने अर्थ-गौरव के लिए प्रसिद्ध है तो कन्नड़ में पुण्यकाय बत्तलेश्वर जी ने भी अर्थ गौरव को उनकी भाँति अर्थातरन्यास अलंकार की झड़ी लगा दी है, एक-दो नहीं, जाने कितने स्थलों पर। वस्तुतः जैसे भूषण अपनी मालोपमा को लिये हुए समस्त हिन्दी-कलाकारों को पीछे छोड़ गये हैं, वैसे ही ‘कौशिक रामायण’ के रचनाकार की मालार्थान्तरन्यास के प्रयोग में समस्त प्राचीन-अर्वाचीन कवियों से आगे निकल गये हैं, यह असन्दिध है। कौशिक रामायण में पग-पग पर हमें भाव-विभोर करनेवाली पंक्तियाँ पढ़ने को मिलती हैं।

तुलसीकृत ‘रामचरितमानस’ में सात काण्ड हैं, अधिकांश रामायणों में छह काण्ड ही मिलते हैं और छठे युद्ध-काण्ड के साथ ग्रन्थ समाप्त हो जाता है, यही चलन है। ‘कौशिक रामायण’ का भी, जिसमें युद्ध-काण्ड में ऐरावण द्वारा राम-लक्ष्मणापहरण एवं वीर हनुमान द्वारा इस इष्टदेव-युग्म के उद्धार की कथा का भी समावेश किया गया है।

कर्नाटक के विभिन्न जिलों में तो यह ग्रन्थ लोकप्रिय है, पर आवश्यकता थी कि हिन्दी-भाषी प्रान्तों के निवासी भी इसके राम-रसामृत का पान करें, यदर्थ भुवनवाणी-ट्रस्ट लखनऊ द्वारा इसे प्रो एस. रामचन्द्र की समर्थ लेखनी द्वारा अनूदित रूप में प्रस्तुत करते हुए हम प्रफुल्ल परितोष पा रहे हैं और आशा करते हैं कि यह रामायण कविपुंगव तुलसी और पंडित राधेश्याम कथावाचक की लिखी रामायणों की भाँति प्रचलित हो सकेगी और इसका आनन्दित पारायण करके पाठक-गण अध्यात्म-पन्थ के सुदृढ़ पथी होकर हमारे प्रयास को सफल करेंगे।

रथयात्रा

जुलाई 14, 1999 ई.

विनय कुमार अवस्थी

मुख्यन्यासी सभापति

भुवनवाणी ट्रस्ट,

अनुवादक का वक्तत्य

कन्नड कौशिक रामायण ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता एवं कन्नड़ के ख्यातनामा साहित्यकार डॉ. शिवराम कारंतजी द्वारा संपादित वृहत् काव्य है। यह दक्षिण कन्नड़ जिले के पुत्तूर के ‘हर्ष प्रकटणालय’ से प्रकाशित है।

यह एक प्राचीन कन्नड महाकाव्य है। इसके रचियता ‘बत्तलेश्वर’ 16 वीं सदी के आसपास के माने गये हैं। ‘बत्तलेश्वर’, कवि का असली नाम है या उपनाम इस पर भी मतभेद है। कन्नड़ साहित्य-सामग्री का आकार ग्रंथ है-‘कवि चरिते’-कवियों के चरित्र। उसमें बत्तलेश्वर के अलावा ‘निर्वाणनायक’, ‘निर्वाणलिंग’ नाम हैं, जो बत्तलेश्वर के पर्यायवाची बताये गये हैं। डॉ. कारंत का कहना है कि किसी भी उपलब्ध हस्तलिखित प्रति में ऐसा कोई नाम नहीं है। काव्य में, मैरावण युद्ध के प्रकरण में, दो एक बार बत्तलेश्लर पद प्रयुक्त है। रुंड भैरव के कथा-प्रसंग में भी उल्लेख है। वहाँ भी ‘निर्वाणनायक’ या ‘निर्वाणलिंग’ प्रयुक्त नहीं है। ‘बत्तलेश्वर’ ही अधिक प्रचलित है। यह रामायण कर्नाटक के उत्तर कन्नड, दक्षिण कन्नड और शिमोगा जिलों में अधिक लोकप्रिय है। कर्नाटक के उत्तर में और अन्यत्र ‘तोरवे रामायण’, ‘पंपरामायण’ चर्चित कृतियाँ हैं। भुवनवाणी ट्रस्ट से इन दोनों का सानुवाद लिप्यंतरण प्रकाशित है। पहले का लिप्यंतरण-अनुवाद मेरे परम आत्मीय स्व. एस. वि. भट्टजी ने और दूसरे श्री रसिक पुत्तिगे ने किया है।

‘कौशिक रामायण’ अब ट्रस्ट की ओर से प्रकाशित हो रही है। महाभारत और भागवत की भाँति चौमासे में उत्तर कन्नड, दक्षिण कन्नड, और शिमोगा जिलों में कौशिक रामायण का कथावाचन होता था। धर्मप्राण श्रोता कथा सुनकर मंत्रमुग्ध हो जाते थे। मुद्रित प्रतियों का अभाव होने लगा तो कथा-वाचन-श्रवण की परंपरा लुप्तप्राय सी हुई। इस सदी के आरंभ में ताड़पत्रों पर की लिखावट पढ़नेवाले भी नहीं के बराबर थे। अतः कौशिक रामायण उपेक्षित रह गई। एक वयोवृद्ध कथावाचक महोदय से डॉ. कारंत को विदित हुआ कि इसमें ‘मैरावण युद्ध’ का प्रसंग है। यह जानकारी मिलते ही डॉ. कारंत का कुतूहल बढ़ा और वे हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्तकर इसके संपादन में लग गये।

इस महाकाव्य में कर्नाटक के पश्चिमी तटवर्ती प्रदेश में होन्नावर, सिरसि, कुमटा आदि स्थान हैं। यहाँ ‘हव्यक्’ नाम का एक जनसमुदाय बसा है। डॉ. कारंतजी को काव्य में हव्यक् कन्नड़ के प्रयोग देखने को मिले हैं। अतः उनका अनुमान है कि इसका कवि कोई हव्यक् कन्नडभाषी रहा होगा। डॉ. कारंतजी को महाकाव्य में कथ्य की अपेक्षा कथन-शैली में देसी का पुट आकर्षक लगा है। विद्वान मित्रों की सलाह एवं सहयोग से डॉ. कारंतजी ने इसका पाठांतर स्थिर किया और कन्नड रामायण-परंपरा में कृति का मूल्यांकन हो, इस उद्देश्य से सहृदय पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया।

कौशिक रामायण 44 संधियों (सर्गों) में विभाजित महाकाव्य है। क्रम से कथा का कहीं संक्षिप्त और कहीं विस्तृत वर्णन है युद्ध का वर्णन विस्तृत मिलता है। 39-40 इन पूरे दो सर्गों में ‘मैरावण युद्ध’ का वर्णन है। कई स्थानों पर पुनरुक्ति भी है। रामायण में पुनरुक्ति कोई दोष नहीं मानी गई है।

भुवन वाणी ट्रस्ट के मुख्य न्यासी श्री विनय कुमार जी अवस्थी ने प्रियवर डॉ. गजानन नरसिंह साठे की सलाह पर कौशिक रामायण का सानुवाद लिप्यंतरण-कार्य मुझे सौंपा। डॉ. गजानन नरसिंह साठे जी ‘रामायण के चलते-चलते विश्वकोष हैं। उन्हें मेरे पास सनेही डॉ. चन्दूलाल दुबेजी ने मेरा नाम सुझाया। जो काम आत्मीय बंधु प्रो. एस. वि. भट्ट को करना था, वही काम उनके निधन के बाद, मैंने यथामति यथाशक्ति किया है। इस अवसर पर मैं इन सबका आभार मानता हूँ।

मैं आचार्य पाठशाला, बेंगलूर के अवकाश-प्राप्त प्रो.टी. केशवभट्टा का आभारी हूँ जिन्होंने काव्य में गोचर कतिपय संदिग्ध छंदों का अर्थ स्पष्ट कराया और मेरा काम सरल बना दिया।

अंत में मैं इतना ही कह सकता हूँ कि अनुवाद में कोई खूबी हो तो वह बत्तलेश्वर कवि की कृपा है और कोई कमी हो तो भूल को पकड़ न पाने की निजी असमर्थता है।

रामनवमी सु. रामचन्द्र

4 अप्रैल 1992 257, काके बिल्डिंग,

नारायणपुर,

धारवाड़-580008

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Authors

Binding

Hardbound

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Language

Hindi

Pages

Publishing Year

1999

Pulisher

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