Murda Ghar

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Murda Ghar

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Author: Jagdamba Prasad Dixit

Availability: 5 in stock

Pages: 147

Year: 2022

Binding: Paperback

ISBN: 9788171198948

Language: Hindi

Publisher: Radhakrishna Prakashan

Description

मुरदा-घर

सामाजिक विसंगतियों और विषमताओं का यथार्थपूर्ण चित्रण है। वर्तमान अर्थव्यवस्था के गाँवों के उजड़ने की प्रक्रिया जैसे-जैसे तेज होती गयी, महानगरों में गंदी बस्तियों और झोपड़-पट्टियों या जुग्गी-झोपड़ियों का उतना ही विस्तार हो गया। इन बस्तियों में मानव जीवन का जो रूप विकसित हुआ है। वह काफी विकृत और अमानवीय है। वेश्या-वृति और अपराध-कर्म का यहाँ विशेष रूप से विकास हुआ। मुरदा-घर में झोपड़-पट्टी की वेश्याओं की दयनीय स्थिति का शक्तिशाली चित्रण है। विद्रूप यथार्थ मुरदा-घर के केंद्र में जरूर है, लेकिन उपन्यास की मुख्य धारा करुणा और संवेदना की है। विकृत से विकृत स्थितियों से गुजरते हुए भी उपन्यास के पात्र नितान्त मानवीय और संवेदनशील हैं।

मुरदा- घर में वर्तमान राज्य-तन्त्र के आमानवीय रूप को भी उकेरा गया है। पुलिस स्टेशन, हवालात, कचहरी वगैरा का जो रूप सामने आया है, काफी अमानवीय और नृशंस है।
मुरदा-घर आज ही हमारी पूरी व्यवस्था पर एक प्रश्न-चिन्ह है। जैसा कि एक आलोचक ने कहा है, ‘मुरदा-घर आधुनिक हिन्दी उपन्यासों की दुनिया में एक चुनौती है। इसका सामना करना आसान नहीं है।’

1

कचरे का पुराना ढेर और एक पागल आदमी…..घूम-घूमकर ढूँढ़ता रहता है कुछ….कभी नहीं मिलता।

डूबती हुई शाम निकल गई दूर। क़तार…..बरतनों की…बहुत लंबी। नल…..भीड़ में खोए बच्चे की तरह रोता हुआ…।

तेज़ हवा का झोंका….तेज़ बदबू। कोढ़ी…गली उँगलियोंवाला…..दोनों हथेलियों में दबाकर कुछ खाने की कोशिश करता है। एक लँगड़ी कुतिया चाटती जाती है खुजली की चमड़ी को। निकल जाते हैं सामने से सूअरों के पिल्ले। कचरे के ढेर पर जली हुईं सिगरेटें….जूठन….आवारा लड़के। ढूँढ़ता जाता है पागल आदमी….कुछ नहीं मिलता।
दुखता है एक ज़ख्म और रिसता जाता है। फिर कट गया कोई रेल की पटरियों पर। आदमी या जानवर…..कोई फ़र्क़ नहीं। मँडरा रहे हैं कौवे…कुत्ते। गटर के पास….एक पागल औरत और एक पागल दुनिया…..चीख़ रहे हैं दोनों। मैनाबाई…खाँसी के बाद सड़क पर फेंका गया बलग़म। बीमार औरत…रंडी। देती जाती हैं गालियाँ….मर्द को..बच्चे को…..सारी दुनिया को। फैलता जाता है अँधेरा।

मालूम नहीं कहाँ…..किस जगह….तोड़ दिए गए झोपड़ें। मालूम हैं सिर्फ़ इतना कि एक पीली सुबह….जब सोने वालों ने आँखे खोलीं…..गंदी बस्तियों को घेर लिया नीली वर्दी ने चारों तरफ़ से। लंबे बेंत और डंडे। नीली गाड़ियाँ। ख़ाकी वर्दियाँ और अफ़सर। सुना दिया गया हुक्म। तोड़ दिए गए झोपड़ें। पीली रोशनी में नंगी हो गई एक दुनिया। कालिख लगे बरतन…मैली पतीलियाँ…..गुदड़ियाँ…..रोते हुए बच्चे…..।
झोपड़ें वाले वहाँ से आ गए यहाँ। आ गईं रंडियाँ भी। बन गए झोंपड़े…एक के बाद एक….इस तरफ़। चौड़ी सड़क। दूसरी तरफ़ ऊँची इमारतों की लंबी क़तार। तैरती है सफ़ेद रोशनी हर वक़्त। उस साफ़ दुनिया के पास पैदा हो गई नई दुनिया….।

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Authors

Binding

Paperback

ISBN

Language

Hindi

Pages

Publishing Year

2022

Pulisher

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