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Description
नागमण्डल
[एक उजड़ा मन्दिर। विग्रह टूट चुका है अतः यह भी पता नहीं चलता कि वह मन्दिर किस देवता का है।
रात का समय। गोपुर की दरारों से बाहर छिटकी चाँदनी भग्न मूर्ती की पीठ को, गर्भमन्दिर के कोनों को प्रकाशमान कर रही है। एक आदमी खम्भे से टेक लगाकर बैठा है। वह कुछ देर तक चुप बैठा रहता है। बाद में एकदम आँखें फाड़-फाड़कर देखने का प्रयत्न करता है। उँगलियों से पलके खोलकर उन्हें चौड़ा कर के देखने की कोशिश करता है। फिर चुप हो जाता है और एकदम प्रेक्षकों से बातें करना शुरू कर देता है।]
मनुष्य: मैं अभी थोड़ी ही देर में मर सकता हूँ। (रूककर) नाटक की मृत्यु नहीं, असली मृत्यु । आप लोगों की आँखों के सामने ही मेरे प्राण-पखेरू उड़ सकते है। (रूककर) मुझे एक सन्यासी ने कहा था. तुम्हें इस मास में कम-से-कम एक दिन पूर्ण जागरण करना चाहिए, तभी जिन्दा रह सकोगे। नहीं तो महीने की आखिरी रात मर जाओगो। उसके यह कहने पर मैं यह सोच कर हँस पड़ा कि यह भला कौन-सी बड़ी बात है। परन्तु अब तक उनतीस रातें गुजा़र चुका हूँ। एक रात भी पूरी तरह जागरण सम्भव नहीं हो सका । प्रत्येक रात मेरे जाने-अनजाने नींद का झोका आ ही जाता है। आँखें लग ही जाती हैं जो मैं खुली आँखों से देख रहा हूँ और समझ रहा हूँ, वह तो बाद में पता चलता है कि वह एक सपना ही था। इस प्रकार उनतीस रातें गुज़र गयी हैं। एक रात भी पूरी तरह जागना सम्भव नहीं हो सका । यह अन्तिम रात है। यह भी कैसे विश्वास करूँ कि जो बात अब तक सम्भव नहीं हो सकी, वह आज सम्भव हो जाएगी. आप लोगों को देखते-देखते ही मुझे झोंका आ सकता है। अगर कुछ ऐसा हुआ तो समझना चाहिए कि मेरा सर्वनाश हो गया। (रूककर) मैंने उस सन्यासी से पूछा था-‘‘भला मेरा अपराध क्या है ? मेरी किस ग़लती के लिए यह मुसीबत मेरे गले पड़ी है ?’’
उसने कहा-‘‘तुमने नाटक लिखे हैं, खिलाये हैं। तुम पर विश्वास रखकर तुम्हारे नाटकों को देखने आयी जनता को ऊबड़-खाबड़ कुर्सी बेन्चों पर बैठने से न तो नींद आयी और न पूरा आराम मिला। इस प्रकार उन्हें नरक-यातना भोगनी पड़ी है। वही अनिद्रा शाप के रूप में तुम्हारे पीछे पड़ी है। मृत्यु बनकर तुम्हारी ताक में है।’’ (मौन) मुझे यह मालूम नहीं था कि मेरे नाटक इतने परिणाम कारी होंगे।
यह अन्तिम रात है। इसीलिए घर छोड़कर भाग आया हूँ। यही सोचकर आया हूँ कि लेखक होने के घमण्ड में जिन्हें मैं आजन्म तंग करता रहा, उनके सामने मरना ठीक नहीं। इस उजाड़ मन्दिर में, जिसका विग्रह भी टुकड़े-टुकड़े हो चुका है और जिसका कोई नाम भी नहीं है, सबसे आँखें बचाकर मरने के लिए यह जगह सही है । मानो इसी के लिए यह जगह बनी हो। एक बात तो सत्य है। अगर इस बार बच गये तो नाटक लिखने का नाम नहीं लूँगा । कहानी, कथानक, प्लाट, थीम, इतिवृत कुछ भी छुऊँगा तक नहीं, भगवान की कसम।
(दीर्घ मौन। बार-बार आँखें खोलने और अपने को चिकोटी काटने का प्रयत्न करता है। मन्दिर के बाहर कई स्त्री स्वर सुनाई पड़ते हैं। उस तरफ देखकर।)
कौन है ? इस आधी रात में, इस उजड़े मन्दिर में कौन आ रहा है ? (आश्चर्य से) चार-पाँच दीये !
(खम्भे की ओट में छिपकर देखता है। चार-पाँच दीये की ज्योतियाँ हवा में तैरती हुई मन्दिर में प्रवेश करती हैं और स्त्री स्वर में बातें करती हैं, हँसती हैं।)
आश्चर्य, परमाश्चर्य…केवल दिये की ज्योतियाँ हैं, बत्ती नहीं, दीये नहीं, दीया पकड़ने वाला नहीं ! केवल ज्योतियाँ बिना किसी का आधार के हवा मे तैरती चली आ रही हैं। बातें भी कर रही हैं। यह कैसा करिश्मा ? यह भूत-प्रेतों की करामात तो नहीं ? या भूतनियों का चमत्कार है?
( और भी दस-बीस ज्योतियाँ आती हैं। उनमें आपस में गप्पें और हँसी-मजाक चलता है।)
ज्योति-3: ओह हो ! अरे यह क्या, ज्योति-1 ! आज तो तुम हमसे पहले ही आ गयी !
ज्योति-1: वह हमारे घर का मालिक है न ! पता है कितना कंजूस है ! पत्नी जरा ज्यादा ख़र्चीली है, समझकर खुद पैंठ होकर आता है। आज दीया जलाकर एक घण्टा भी नहीं हो पाया था। कि उसका लाया वंगे का तेल ख़तम हो गया। घर में मूँगफली का तेल भला कितने दिन चलता ! अरण्डी के तेल का डिब्बा पहले ही खाली पड़ा था। खैर, घर में एक बूँद तेल नहीं था। और कोई चारा न होने से वे सब सो गये। हम भी चल पड़ीं ।
ज्योति-2: (ज्योति-4 से नाक सिकोड़कर) धत्, कुसबी का तेल, मूँगफली का तेल ! वे कैसे सहन करते है ?हम तो घाट के नीचे के हैं। हमारे यहाँ खोपरे के तेल के सिवा और दूसरा तेल इस्तेमाल ही नहीं होता।
ज्योति-1: हमारी बात छोड़ो। रोजा़ना आने के समय से कोई आधा घण्टा पहले आयी होगी। पर तुम्हारे साथ आयी यह मिट्टी के तेल की ज्योति ? इसका तो महीनों पता नहीं रहता। आज इतनी जल्दी कैसे यहाँ ?
ज्योति-4:आज ही क्यों ? आगे से ऐसा लगता है, रोज़ जल्दी ही छुटकारा मिल जाएगा।
(उसके साथ आयी ज्योतियाँ खिलखिलाकर हँस पड़ी हैं)
ज्योति-1: क्यों, क्या हुआ ?
ज्योति-2: बताओ, बताओ न !
ज्योति-3: हमारे मालिक की माँ बहुत बूढ़ी थी। पेट के घाव, पीठ में पस, दमा, खाँसी, मल-मूत्र सब कुछ बिस्तार पर। न मरती थी, न जीती। खाँसी इतनी कि कोई सो नहीं सकता । मुझे भी छुटकारा नहीं था। हालत ही ऐसी थी उसकी। आज सुबह वह चल बसी ! अब घर में केवल दो ही जीव हैं-यानि हमारे मालिक और पत्नी। पत्नी भी कितनी सुन्दर है, मालूम है ? छूने भर से ही मैली हो जाए। सोने सी उछलती है। उन्होंने अँधेरा होते ही मुझे बाहर निकाल दिया।
ज्योति-2: तुम भाग्यवान हो। हमारे मालिक को तो पत्नी के अंगांग देखने पर ही गर्मी चढ़ती है। इसलिए अँधेरे में होने वाले सभी काम के लिए दीये का साक्षी होना चाहिए।
(हँसी। सब ज्योतियाँ बाते करती हैं । नयी ज्योतियाँ आ-आकर बैठती हैं, अलग हँसती है, गप्पें मारती हुई घूमती हैं।)
मनुष्य: (स्वगत) ओह, सुना था कि रात के समय दीया बुझते ही सारी ज्योतियाँ तुरन्त गाँव के बाहर के मन्दिर में एकत्रित होती हैं। वहाँ वे गप्पे मारते हुए सारी रात बिताती हैं। वे ही इस मन्दिर में एकत्रित हो रही हैं क्या ?
(एक नयी ज्योति मन्दिर में प्रवेश करती है। सारी ज्योतियाँ खुशी से शोर-गुल करती उसका स्वागत करती हैं।)
ज्योतियाँ: अरी इतनी देर क्यों ? कहाँ थी ? आधी रात हो गयी….
नयी ज्योतियाँ: क्या बताऊँ… हमारे घर में तो एक हंगामा ही हो गया।
ज्योतियाँ: (उसे घेरकर) क्या हुआ ? क्या हुआ ?
नयी ज्योति: आप लोगों को मालूम नहीं है ? हमारे घर में केवल दो ही प्राणी हैं- बूढ़ा़-बूढ़ी। आज बुढ़िया खाना खाकर गोबरी लगाकर, बर्तन माँजने के बाद पति के सोने के कमरे में गयी। वहाँ वह क्या देखती है-एक सुन्दर स्त्री बढ़िया-सी रंग-बिरंगी साड़ी पहनकर उस कमरे से बाहर आ रही थी। बुढ़िया को देखते ही, मुँह छिपाकर वह घर से चली गयी ! बुढ़िया ने बूढ़े को जगाकर उस औरत के बारे में पूछा। बात से बात बढ़ गयी। यहाँ तक कि नौबत हाथापाई तक आ पहुँची।
ज्योतियाँ: (शोर) वह औरत कौन थी? तुम्हारे घर में कैसे घुसी ?
नयी ज्योति: बताती हूँ, बताती हूँ। हमारी बुढ़िया एक कहानी और एक गीत जानती थी। पर उसने कभी किसी को वह कहानी नहीं सुनाई ; न ही वह गीत। वह कहानी और वह गीत वहीं पड़े-पड़े ऊब गये थे। आज दोपहर को भोजन करके बुढ़िया जरा लम्बी हो गयी। ज्यों ही उसने खर्राटे लेने को मुँह खोला, त्यों ही कहानी और गीत उसके मुँह के बाहर कूद पड़े। अटारी पर चढ़कर एक कोने में छिपकर बैठ गये। रात को बूढ़ा अपने कमरे में सोने गया ही था कि मौका देखकर कहानी ने एक लड़की का रूप धारण कर लिया, गीत ने साड़ी का रूप धारण किया। उस साड़ी को पहनकर कहानी बूढ़े के कमरे में जा बैठी। ठीक बुढ़िया को वहाँ आने के समय वह बाहर निकली। इस तरह घर में झगड़ा पैदा करके कहानी और गीत ने अपना बदला ले लिया।
ज्योति-4: वही तो। एक कहानी छिपा लो तो दूसरी बन जाती है।
ज्योति-5: बदला तो ले लिया। पर उन बेचारियों का आगे क्या बनेगा ? इस अँधेरे में पता नहीं कहाँ-कहाँ भटक रही होगी।
नयी ज्योति: आते समय रास्ते में मेरी उनसे भेट हुई थी। मैंने कहा ‘मन्दिर में आ जाओ। हम सब वहीं है।’ आ सकती हैं…वह देखो आ ही गयीं।
(एक सुन्दर युवती रंग-बिरंगी साड़ी पहने, मन्दिर में प्रवेश करती है। उसका मुँह उतरा हुआ है। चुपचाप जाकर एक कोने में बैठ जाती है। ज्योतियाँ उसे घेर लेती हैं।)
ज्योतियाँ: अरे, ऐसे मुँह लटका कर क्यों बैठी गयी ?हमें भी कोई और काम नहीं। सारी रात बितानी है। तुम अपनी कहानी सुनाओ तो।
कहानी: (विषाद से) आप लोगो को बताने से क्या लाभ है! जो कहानी सुनते हैं उसे वे दूसरों को सुनाएँ तो ही ठीक है। आप लोग उसे किसी को नहीं सुनाओगी तो समझ लो वह कहानी वहीं समाप्त हो जाती है। इससे अच्छा तो यही था कि उस बुढ़िया के भीतर ही पड़ी रहती। आज नहीं तो कल कभी तो वह दूसरों को सुनाती ही।
ज्योतियाँ: यह बात ठीक है। पर भला बताओ। हम भी क्या करें ?
(इस प्रकार वे सब आपस में बातें करती हैं। कहानी शून्य मन से बैठी रहती है। मनुष्य अपनी जगह से उछलकर कहानी की बाँह पकड़ता है। ज्योतियाँ घबराकर बिखर जाती हैं। कहानी भी अपने को छुड़ाने का यत्न करती है।)
मनुष्य: तुम मुझे बताओ, मैं उसे दूसरों को सुनाऊँगा।
कहानी: (हाथ छुड़ाने का यत्न कर) तुम कौन हो, कौन हो तुम ? छोड़ो मुझे।
मनुष्य: मैं चाहे कोई भी होऊँ। मैंने कहा न, मैं कहानी सुनने को तैयार हूँ।
कहानी: यह बात है ! तो मेरा हाथ छोड़ो । (वह छोड़ता नहीं। उसे डर है कि वह भाग जाएगी।)
कहानी कहने के लिए सिर्फ मुँह काफी नहीं। हाथ भी चाहिए। (वह हाथ छोड़ देता है।)
पर एक शर्त है !
मनुष्य: क्या ?
कहानी: सिर्फ़ कहानी सुनने से कोई लाभ नहीं। उसे फिर से किसी को सुनाना चाहिए। कहानी का जन्म किसी एक की सम्पत्ति बनाने को नहीं होता है।
मनुष्य: ओह, जिन्दा रहा तो सुनाऊँगा ? पर पहली बात तो यह है कि मुझे जि़न्दा रहना चाहिए । हाँ, मेरी भी एक शर्त है !
कहानी: वह क्या ?
मनुष्य: कहानी सुनते समय मुझे नींद नहीं आनी चाहिए । ऊँघ नहीं आनी चाहिए। नींद आ गयी तो मैं मर जाऊँगा।
कहानी: (हँसकर) कहानी होकर जन्म लेने के बाद अगर इतना भी नहीं कर सकी तो क्या लाभ ?
मनुष्य: (एकदम याद करके) नहीं, नहीं, सम्भव नहीं।
कहानी: क्या ? अब क्या हो गया ?
मनुष्य: मैंने अभी-अभी प्रतिज्ञा की थी। अगर जिन्दा रहा तो कहानी, नाटक लिखना सब बन्द कर दूँगा। दुबारा इन प्रेक्षकों के शाप का सामना करने का उत्साह मुझमें नहीं बचा है।
कहानी: (खीचकर) तो ठीक है, हम चलीं । (जाती है।)
मनुष्य: रूकिए, रूकिए।
(रूकती है। मनुष्य दीन होकर)
मेरी परिस्थिति को जरा समझने का यत्न कीजिए ।
(कहानी जाने को होती है। मनुष्य जो़र से)
ठीक है मान लिया। और क्या करू ? आप अगर चली गयीं तो समझ लीजिए मेरी कहानी भी खतम। मेरे लिए और कोई चारा ही नहीं।
(प्रेक्षकों से) कम-से-कम अब तो नाटक खिलवाने का कारण पता चल ही गया होगा। हाथ जोड़कर प्रार्थना करता हूँ। ज़रा सहयोग दीजिए। कृपया ध्यान देकर नाटक देखिए। मेरे लिए तो यह जीवन-मरण का प्रश्न है।
(कहानी से) ठीक है, कहानी सुनाओं ।
(आगे से नाटक के अन्त तक कहानी और मनुष्य रंगमंच पर ही रहते हैं। उनके चारों ओर यानी ज़रा दूर ज्योतियाँ एकत्रित होकर कहानी सुनती हैं। अब उजड़े मन्दिर के स्थान पर अप्पण्णा के घर के सामने का भाग दिखाई देता है।
Additional information
Authors | |
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Binding | Paperback |
ISBN | |
Language | Hindi |
Pages | |
Publishing Year | 2022 |
Pulisher |
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