Nyay Ka Sangharsh

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Nyay Ka Sangharsh

Nyay Ka Sangharsh

60.00 51.00

In stock

60.00 51.00

Author: Yashpal

Availability: 5 in stock

Pages: 91

Year: 2002

Binding: Hardbound

ISBN: 9789389742213

Language: Hindi

Publisher: Lokbharti Prakashan

Description

न्याय का संघर्ष

न्याय की धारणा और समाज की व्यवस्था के समान रुखे विषय की विवेचना को भी रंजक बना देना इन लेखों की सार्थकता है। भाषा प्रवाह के रूप तैरते हुए विद्रूप का अभिप्राय रुखे और गम्भीर विषय को रोचक बना देना ही है। इन लेखों को पढ़-कर आपके होठों पर जो मुस्कराहट आयेगी वह आत्म-विस्मृति और आनन्दोल्लास की न होकर क्षोभ, परिताप और करुणा की होगी।

इन लेखों में लेखक ने आत्म-विस्मृत समाज को कलम की नोक से गुदगुदा कर जाने जगाने की चेष्टा की है और समाज को करवट बदलते न देखकर कई जगह उसने कलम की नोक समाज के शरीर में गड़ा दी है।

 

भूमिका

मनुष्य-समाज की आयु और ज्ञान बढ़े और उसकी आवश्यकतायें बढ़ने लगीं। इन आवश्यकताओं के बढ़ने और बदलने के साथ ही समाज के क्रम में भी परिवर्तन आता रहा है। मनुष्य-समाज के जीवन को किसी क्रम-विशेष या व्यवस्था के अनुसार संचालित करने के लिये जो परिस्थितियाँ जिम्मेदार हैं उनमें समाज का अपना अनुभव भी विशेष महत्वपूर्ण है। समाज के संचित अनुभवों के आधार पर खड़ा किया गया तर्क और कल्पना ही हमारा समाज-शास्त्र है। समाज शास्त्र का उद्दे्श्य समाज की रक्षा और विकास है।

जब समाज के विकास का मार्ग आगे बन्द होने लगता है तब समाज का शास्त्र गूढ़ चिन्तन और मनन द्वारा अपनी रक्षा के लिये नया कार्यक्रम बनाने के लिये बाधित होता है। बाधिक होकर समाज द्वारा नये कार्यक्रम का तैयार किया जाना ही समाज में विचारों की क्रान्ति है।

समाज की जीर्ण अवस्था में परिवर्तन होने से पूर्व विचारों में क्रान्ति आवश्यक और प्राकृतिक क्रम है। सामाजिक क्रान्ति के मध्याह्न के लिये विचारों की क्रान्ति उषा के समान है। हमारा समाज अपनी पुरानी व्यवस्था के शिकंजे में छटपटा रहा है और नवीन व्यवस्था की आवश्यकता अनुभव कर रहा है। यह विचारों की क्रान्ति का लक्षण है। दूसरे शब्दों में कहना होगा कि हम विचारों की क्रान्ति के युग से गुजर रहे हैं।

 

‘न्याय’ की धारणा मनुष्य-समाज को क्रम और नियंत्रण में रखने वाली आन्तरिक श्रृंखला है। समाज समाज की प्रत्येक व्यवस्था और क्रम अपनी एक न्याय की धारणा रखता है। यह धारणा उस सामाजिक व्यवस्था को पूर्णता के लक्ष्य और आदर्श की ओर संकेत करती रहती है। विचारों की क्रान्ति का काम हमारी न्याय की धारणा को मार्ग पर लाना है।

इस पुस्तक में हमारी नवीन परिस्थितियों के लये अनुपयुक्त और जर्जर न्याय की धारणा का विश्लेषण (Vivisection) किया गया है। इस विश्लेषण में हमारी वर्तमान न्याय की धारणा में कदम-कदम पर मौजूद विरोधाभास प्रत्यक्ष हो जाते हैं। एक नवीन सामाजिक व्यवस्था और क्रम की ओर हमारा ध्यान जाता है।

न्याय की धारणा और समाज की व्यवस्था के समान रूखे विषय की विवेचना को भी रोचक और मनोरंजक बना देना इन लेखों की सार्थकता है। भाषा प्रवाह के ऊपर तैरते हुए विद्रूप की तह में सिद्धान्तों की शिलायें मौजूद हैं। मनोरंजन और विद्रूप का अभियप्राय रूखे और गम्भीर विषय को रोचक बना देना ही है। इन लेखों को पढ़कर आपके होंठों पर जो मुस्कराहट आयेगी वह आत्म-विस्मृत और आनन्दोल्लास की न होकर क्षोभ परिताप और करुणा की होगी।

इन लेखों में लेखक ने आत्म-विस्मृत समाज को कलम की नोक से गुदगुदाकर जगाने की चेष्टा की है और समाज को करवट बदलते न देखकर कई जगह कलम की नोक समाज के शरीर में गड़ा दी है।

– नरेन्द्र देव

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Authors

Binding

Hardbound

ISBN

Language

Hindi

Pages

Publishing Year

2002

Pulisher

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