Sankat Ke Bavajood

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Sankat Ke Bavajood

Sankat Ke Bavajood

495.00 375.00

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495.00 375.00

Author: Manager Pandey

Availability: 5 in stock

Pages: 205

Year: 2018

Binding: Hardbound

ISBN: 9788170555940

Language: Hindi

Publisher: Vani Prakashan

Description

संकट के बावजूद

संकट के बावजूद आधुनिक युग के कुछ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मूलगामी चिन्तकों और संवेदनशील रचनाकारों के साक्षात्कारों तथा आलेखों की किताब है। इसमें 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध से 20वीं सदी के अन्त तक अर्थात्‌ 1871 में पेरिस कम्यून की स्थापना से लेकर 1989 में समाजवादी व्यवस्थाओं के विघटन तक के इतिहास की हलचलों और विचारों की बीहड़ यात्राओं के विभिन्‍न मोड़ों, संकटों और संघर्षो के ऐसे अनुभवों की अनुगूँजें हैं जिनकी सजग चिन्ता और सावधान पहचान उन सबके लिए जरूरी है जो भारतीय समाज के वर्तमान संकट तथा उसके भविष्य की दिशा को समझना चाहते हैं।

इस पुस्तक में दो खण्ड हैं। एक खण्ड साक्षात्कारों का है तथा दूसरा वैचारिक आलेखों का। इनमें क्यूबा की क्रान्ति से जुड़े विख्यात कवि-आलोचक रोबेततों फेर्नान्दिज रेतामार, चेकोस्लोवाकिया की लोकतान्त्रिक क्रान्ति के अग्रणी और प्रसिद्ध उपन्यासकार-नाटककार इवान क्लीमा तथा विख्यात आलोचक जॉर्ज लूकाच के साथ-साथ विश्व को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले दार्शनिक कार्ल मार्क्स के दो दुर्लभ और विचारोत्तेजक साक्षात्कार भी हैं। पुस्तक के दूसरे खण्ड में प्रसिद्ध चिन्तक फ्रेडरिक क्रूज, रिचर्ड हॉगर्ट, रेमण्ड विलियम्स और विशिष्ट भारतीय विचारक स्वर्गीय ज्योतिस्वरूप सक्सेना के आलेख हैं।

पूरी पुस्तक गहन वैचारिक विमर्श के साथ-साथ जटिल सामाजिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक प्रश्नों के उत्तर खोजने तथा उनसे पाठकों को आन्दोलित करने की सामर्थ्य से भरपूर है। रोबेर्तो फेर्नान्देज रेतामार यदि अपने साक्षात्कार में शीतयुद्ध के अन्त के बाद आये शीतशान्ति के समय में मानव-इतिहास की आख़िरी लड़ाई के लक्षण देखकर चिन्तित हैं तो उत्तर-आधुनिकतावाद को उपनिवेशवादी मानसिकता से ग्रस्त देशों का एक फैशन मानकर उसकी सार्थकता पर प्रश्न खड़े करते हैं। इवान क्लीमा मिलान कुंदेरा के बहाने यह सवाल करते हैं कि क्या एक लेखक को अपने देश की समस्याओं और आन्दोलनों से आँख मूँदकर विश्व साहित्य की रचना में डूबे रहना चाहिए ?

इसी क्रम में क्लीमा ने काफ़्का को नये सिरे से परखते हुए कहा है कि काफ़्का हमें यह बताता है कि जो कुछ हमें विचित्र, हास्यपद और अविश्वसनीय लगता है वही वास्तव में घटित हो रहा है। जॉर्ज लूकाच यह घोषणा करते हैं कि यद्यपि ब्रैख़्त एक अच्छा नाटककार था, किन्तु नाटक और सौन्दर्यशास्त्र से सम्बन्धित उसके विचार गलत और उलझे हुए हैं। कार्ल मार्क्स अपने एक साक्षात्कार में अपने समय की सत्ताओं और सूचना तन्त्रों के झूठ का पर्दाफाश करते हुए अपनी कठिन लड़ाई की कहानी बताते हैं तो दूसरे साक्षात्कार में वे कहते हैं कि क्रान्ति केवल एक पार्टी नहीं करती बल्कि उसे समूचा राष्ट्र पूरा करता है।

फ्रेडरिक क्रूज अनेक उदाहरणों के जरिये यह साबित करते हैं कि पूँजीवाद का आधार है शोषण और सामाजिक विषमता। रिचर्ड हॉगर्ट ने साहित्य के समाजशास्त्र में अपेक्षाकृत उपेक्षित साहित्यिक कल्पना और समाजशास्त्रीय कल्पना के अन्तरंग सम्बन्ध पर विचार करते हुए इन दोनों से प्राप्त अन्तर्दृष्टियों की समान-धर्मिता की खोज की है। रेमण्ड विलियम्स ने प्रतिबद्धता पर विचार के इतिहास का विवेचन करते हुए प्रतिबद्धता की रूढ़िबद्ध धारणा को तोड़ा है। अपने दूसरे आलेख में रेमण्ड विलियम्स ने संस्कृति के क्षेत्र में मार्क्सवादी चिन्तन की नयी सम्भावनाओं की ओर ऐसे संकेत दिये हैं जिनका परवर्ती चिन्तन पर गहरा असर पड़ा है।

इस पुस्तक का अन्तिम आलेख अनेक कारणों से विशेष महत्त्वपूर्ण है। सत्तर के दशक के आरम्भ में लिखे इस आलेख में ज्योतिस्वरूप सक्सेना ने भारतीय समाज और संस्कृति का विश्लेषण करते हुए जिन समस्याओं, स्थितियों और बातों की ओर संकेत किया है वे आज सत्तर के दशक से भी अधिक आतंककारी रूप में हमारे सामने हैं। ज्योतिस्वरूप सक्सेना का यह निबन्ध आज के भारतीय समाज की राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक समस्याओं को गहरी-अंतर्दृष्टि के साथ समझने में मदद करने वाला है।

इस पुस्तक में वह विचार प्रक्रिया है जो सारी मुश्किलों के बावजूद साहित्य की सामजिकता और समाज की संर्घषशीलता को उम्मीद की नज़र से देखती है। वैसे तो यह अनुवादों की पुस्तक है, लेकिन एक सुनिश्चित विचार प्रक्रिया और चयन दृष्टि के साथ मैनेजर पाण्डेय ने इसे हिन्दी पाठकों के समक्ष रखा है। यह पुस्तक उन सबके लिए उपयोगी है जो विचार की सामाजिक सार्थकता और मनुष्य की अदम्य संघर्षशीलता में आस्था रखते हैं तथा उनके लिए संघर्ष करने में विश्वास भी करते हैं। इस पुस्तक की भूमिका को भी देखना एक गम्भीर विमर्श से गुजरना है जिसमें समाजवाद के ध्वंस, पूँजीवाद के भूमण्डलीकरण तथा उत्तर-आधुनिकतावाद पर नये ढंग से विचार किया गया है।

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Binding

Hardbound

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Language

Hindi

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Publishing Year

2018

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