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Description
स्त्रीत्व धारणाएँ एवं यथार्थ
विश्व की ‘एकेडमिक्स’ यूरोईसाई सिद्धान्तों, अवधारणाओं एवं विचार-प्रयत्नों से संचालित है। आधुनिक स्त्री-विमर्श पूरी तरह पापमय, हिंसक और सेक्स के विचित्र आतंक से पीड़ित ईसाईयत द्वारा गढ़ा गया है। गैरईसाई देशों एवं सभ्यताओं में उनके अपने ऐतिहासिक, सामाजिक एवं धार्मिक परिदृश्य में उभरी-पनपी ‘स्त्रीत्व’ की धारणा एकेडमिक बहस के बाहर है।
यह पुस्तक इस यूरोकेन्द्रित पूर्वाग्रह को किसी सीमा तक संतुलित करने का प्रयास करती है, गैरईसाई सभ्यताओं में विद्यमान स्त्री-विमर्श को हिन्दू दृष्टि से सामने लाकर।
यह पुस्तक बताती हैः यूरोप में कैथोलिकों एवं प्रोटेस्टेन्टों ने पाँच सौ शताब्दियों तक करोड़ों निर्दोष सदाचारिणी, भावयमी श्रेष्ठ स्त्रियों को डायनें और चुड़ैल घोषित कर जिन्दा जलाया, खौलते कड़ाहों में उबाला, पानी में डुबो कर मारा, बीच से जिन्दा चीरा, घोड़े की पूँछ में बँधवा कर सड़कों-गलियों में इस प्रकार दौड़ाया कि बँधी हुई स्त्री लहूलुहान होकर दम ही तोड़ दे !
ये सभी पाप छिप-छिपा कर नहीं, सरेआम पूरे धार्मिक जोशो-खरोश से, पादरियों की आज्ञा से, पादरियों के प्रोत्साहन से और पादरियों की उपस्थिति में किये जाते थे तथा चर्चों के सामने सूचीपत्र टँगे रहते थे कि स्त्रियों को खौलते तेल में उबालने के लिए 48 फ्रैंक, घोड़े द्वारा शरीर को चार टुकड़ों में फाड़ने के लिए 30 फ्रैंक, जिन्दा गाड़ने के लिए 2 फ्रैंक, चुड़ैल करार दी गयी स्त्री को जिन्दा जलाने के लिए 28 फ्रैंक, बोरे में भरकर डुबोने के लिए 24 फ्रैंक, जीभ, कान, नाक काटने के लिए 10 फ्रैंक, तपती लाल सलाख से दागने के लिए 10 फ्रैंक, जिन्दा चमड़ी उतारने के लिए 28 फ्रैंक लगेंगे।
कौन विश्वास करेगा कि ख्रीस्तीय यूरोप में सेक्स एक आतंक था और गोरे पुरुष अपनी औरतों से थरथराते काँपते डरते रहते थे कि जाने कब उसके काम-आकर्षण में फँस जाँय क्योंकि स्त्री तो शैतान का औजार है, प्रचण्ड सम्मोहक और ‘ईविल’ है। कैथोलिक पोपों के पापों से और घरों के भीतर उसकी दखलन्दाजी से घबड़ा कर प्रोटेस्टेन्ट ईसाईयों ने ‘पति परमेश्वर है’ की धारणा रची, यह आज कितने लोग जानते है ? ख्रीस्तपंथी यूरोप में सन् 1929 तक स्त्री को व्यक्ति नहीं माना जाता था, स्त्रियों को आँख के अलावा शेष समस्त देह को ख्रीस्तपंथ के आदेशों के अन्तर्गत ढँककर रखना अनिवार्य था और पति-पत्नी का भी समागम सोमवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार एवं रविवार के दिनों में वर्जित एवं दण्डनीय पाप घोषित था।
पोप इनोसेन्ट के जुलूस मे आगे-आगे सैकड़ों निर्वसन स्त्रियाँ एवं दोगले बच्चे चलते थे, यह कितनों को पता है ?
अविवाहित यानी ‘सेलिबेट’ पादरियों को वेश्या-कर देना अनिवार्य था और ख्रीस्तीय राज्य उन पादरियों के लिए लाइसेंसशुदा वेश्यालय चलाया था, विवाह एक धत्-कर्म था तथा वेश्या होना विवाहित होने की तुलना में गौरवमय था–ख्रीस्तपंथी पादरियों की व्यवस्था के अनुसार। ऐतिहासिक यथार्थ के इन महत्त्वपूर्ण पक्षों की प्रामाणिक प्रस्तुति करनेवाली यह पुस्तक विश्व की श्रेष्ठ 25 विश्व-सभ्यताओं में स्त्री की गरिमापूर्ण स्थिति की थी प्रामाणिक विवेचना करती है और हिन्दू स्त्रियों के समक्ष उस दायित्व को रखती है जो उन्हें वैश्विक मानवीय सन्दर्भों में शुभ, श्रेयस एवं तेजस की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए निभाना है।
विषय प्रवेश
- आभार
- क्या प्राचीन सभ्यताओं में स्त्री पराधीन एवं पीड़ित रही है ?
- हिन्दू सभ्यता में स्त्री : शास्त्रीय धारणाएँ एवं ऐतिहासिक यथार्थ
- यूरोख्रीस्त सन्दर्भों को ही वैश्विक मानवीय सन्दर्भ मानने की भूल
- स्त्री की हीनता का पैगाम लेकर आया खीस्तपंथ
- वीर यूरोपीय स्त्रियों ने यों समाप्त की यह आरोपित हीनता
- इस्लाम एवं ख्रीस्तपंथ द्वारा आरोपित हीनता को ऐसे आत्मसात किया गया भारत में
- परम्परागत हिन्दू स्त्री सम्बन्धी आधुनिक स्त्रियों की समझ और छवि
- कब तक रहेगा भारतीय स्त्री की आत्मछवि पर यूरोख्रीस्त बौद्धिक संरचनाओं का प्रभाव
- यथार्थ पर ही आधारित होगा भारतीय स्त्री का नवोन्मेष
Additional information
Authors | |
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Binding | Hardbound |
ISBN | |
Pages | |
Language | Hindi |
Publishing Year | 2009 |
Pulisher |
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